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________________ 37 अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 अपने जीवन भर कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। बोधायन और आपस्तम्ब सूत्रों में भी गृहस्थाश्रम को ही मुख्य कहा है। स्मृतियों की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। मनुस्मृति में संन्यास आश्रम का कथन करके भी अन्य आश्रमों की अपेक्षा गृहस्थाश्रम को ही श्रेष्ठ कहा है। इसके विपरीत जैनधर्म के अनुसार श्रमण धर्म को अपनाये बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। गृहस्थ धर्म मुनि धर्म का लघु रूप है और जो मुनिधर्म को पालन करने में असमर्थ होता है वह गृहस्थधर्म का पालन करता है। पं. आशाधर ने कहा है त्याज्यानजस्त्र विषयान् पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते॥ जो जिनदेव के उपदेशानुसार संसार के विषयों को त्याज्य जानते हुए भी मोहवश छोड़ने में असमर्थ है उसे गृहस्थ धर्म का पालन करने की अनुमति दी जाती है। जैनधर्म के पांच व्रत प्रसिद्ध हैं- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इनका सर्वदेश पालन श्रमण करते हैं और एकदेश पालन गृहस्थ करता है। अतः श्रमणों के व्रतों को महाव्रत और गृहस्थों के व्रतों को अणुव्रत कहते हैं। भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों ने गृहवास छोड़कर श्रमणधर्म को अंगीकार किया था। अतः श्रमण संस्कृति की परम्परा सुदीर्घकाल से सम्भवतः अनादि काल से चली आ रही है, उसकी ऐतिहासिकता एवं प्राचीनता विद्यमान साक्ष्यों और प्रमाणों से सुस्पष्ट है। ****** निदेशक-जैनायुर्वेद साहित्यानुसन्धान केन्द्र, राजीव काम्पलेक्स के पास, अहिंसा मार्ग, इटारसी (म.प्र.) 461111
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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