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________________ अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 भोगना पड़ता है तो योगसाधना या ध्यानसाधना की क्या भूमिका है? यहाँ ध्यातव्य है कि जिन कर्मों का आत्मा ने बंध कर लिया है, वे अवश्य ही उदय में आते हैं। उदय में आने पर वे कर्म अपनी मूल प्रकृति के अनुसार फल देते हैं। कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म आत्मा के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं, अतः घातिकर्म कहलाते हैं तथा शेष वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र चार कर्म जीव के अनुजीवी गुणों का घात नहीं करते हैं, अतः अघातिकर्म कहलाते हैं। इन आठ कर्मों को दृष्टान्त के रूप में इस प्रकार देखा जा सकता है1. ज्ञानावरण मुख पर ढंका वस्त्र 2. दर्शनावरण द्वारपाल 3. वेदनीय मधुलिप्त खड्ग 4. मोहनीय मदिरा 5. आयु हलि (खोड़ा) 6. नाम चित्रकार 7. गोत्र कुम्भकार 8. अन्तराय भण्डारी कहा भी गया है ‘पडपडिहारसिमज्जा हलिचितकुलालभंडयारीण। जह एदेसिं भावा तहवि य कम्मा मुणेयव्वा॥'६ कर्मों की मूल प्रकृतियों में उलटफेर नहीं हो सकता है, किन्तु उत्तर प्रकृतियों के सम्बन्ध में यह नियम पूर्णतः लागू नहीं होता है। एक कर्म की उत्तर प्रकृति उसी कर्म की उत्तर प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। यह बात भी सर्वत्र लागू नहीं है। जैसे दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीय के रूप में या चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय के रूप में संक्रमित नही हो सकती है। दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व वेदनीय प्रकृति का मिथ्यात्व वेदनीय प्रकृति के रूप में या मिथ्यात्व वेदनीय प्रकृति का सम्यक्त्व वेदनीय प्रकृति के रूप में संक्रमण नहीं होता है। आयु कर्म की
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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