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________________ अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 'कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। पनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने का प्रयत्न अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जा सकता है, परन्तु इस कर्मफल का सिद्धान्त और कहीं भी नहीं मिला। 21 प्राच्यविद्या के सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक ए.बी. कीथ ने रायल एशियाटिक सोसायटी के जरनल में एक बड़ा ही चिन्तनपरक आलेख लिखा था। वे लिखते हैं - 'भारतीयों के कर्मबन्ध का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है। संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है। जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह उक्त सिद्धान्त को जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता है। 22 यतः विभिन्न दार्शनिकों की आत्मविषयक अवधारणायें भिन्न-2 हैं, अतः कर्मसिद्धान्त की मान्यता में मतवैभिन्य होना अस्वाभाविक नहीं है। तथापि पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए वैदिक, बौद्ध एवं जैन सभी धार्मिकों ने कर्मसिद्धान्त को स्वीकार किया है। विभिन्न दार्शनिकों ने कर्म के पर्यायवाची के रूप में पृथक-पृथक शब्द स्वीकार किये हैं। यथा - जैन कर्म वासना, अविज्ञप्ति। वेदान्त अविद्या, माया।4 सांख्य-योग आशय, क्लेश न्याय-वैशेषिक - धर्माधर्म, संस्कार, अदृष्ट। मीमांसक - अपूर्व जैनदर्शन के अनुसार कर्म एक स्वतन्त्र तत्त्व है। आचार्य देवचन्द्र लिखते हैं- 'कीरइ जीएण हेउहि, जेणत्तो भण्णए कम्म।२८ अर्थात् जिन कारणों से जीव कुछ करता है, वह कर्म है। कर्म मात्र संस्कार नहीं है, अपितु वह जीवकृत है। परमात्मप्रकाश में स्पष्टतया कहा गया है "विसयकसायहिं रंगियहिं, जे अणुया लग्गति। जीवपएसहँ मोहियहँ, ते जिण कम्म भणंति॥२९ अर्थात् आत्मा की राग-द्वेष रूप क्रिया से रंजित होकर जो पुद्गल कर्मपरमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं, उन्हें जिनेन्द्र भगवन्त बौद्ध
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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