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________________ अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 है। वह इसी चिन्ता में झुलस रहा है- एक कवि ने ठीक ही लिखा है चिंता चिता समाख्याता बिन्दु मात्र विशेषतः। सजीवं दहते चिंता निर्जीवं दहते चिता॥ यह विचार करने की बात है कि सुख कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो कहीं बाजार में किसी कीमत पर खरीदी जा सके बल्कि यह आत्मा का निजगुण है- जिसे संसारी जीव नहीं पहचानते। वे अपनी आत्मा से भिन्न दूसरे पदार्थों में सुख की कल्पना किये हुए हैं और उन्हीं की प्राप्ति के लिए दिन-रात परेशान मारे मारे फिरते हैं। उनको यह खबर नहीं कि पर-पदार्थ तीनकाल में भी अपना नहीं हो सकता और न जड़ कभी चेतन बन सकता है। जो संयोग में सुख मानता है, उसके वियोग में नियम से दु:ख उठाना पड़ता है। अतः पर-पदार्थ अंत में दु:ख के कारण होते हैं। वास्तव में यदि ध्यान से देखा जाय तो पर-पदार्थों में सुख है ही नहीं, उनमें सुख का आधार एक मात्र हमारी कल्पना है और उस कल्पित सुख को सुख नहीं कह सकते, वह सुखाभास है- सुख जैसा दिखलाई देता है-मृगतृष्णा है और इसीलिये पर-पदार्थों में सुख कल्पित करने वालों की हालत ठीक उन लोगों जैसी है जो एक पर्वत की दो चोटियों के मध्य-स्थित सरोवर में किसी बहुमुल्य हार के पीछे गोते लगाते और लगवाते हुए बहुत कुछ थक गये थे, उनको पानी में वह हार दिखलाई तो जरूर पड़ता था लेकिन पकड़ने पर हाथ में नहीं आता था। इसलिये वे बहुत ही हैरान तथा परेशान थे कि मामला क्या है? वस्तुतः हार ऊपर पर्वत की दोनों चोटियों के अग्रभाग से बँधे हुए एक तार के बीच में लटक रहा है और अपने प्रतिबिम्ब से जल को प्रतिबिम्बित कर रहा है। यदि तुम उसे लेना चाहते हो, तो ऊपर चढ़कर वहाँ तक पहुँचने की कोशिश करो, तभी तुम उसे पा सकोगे; अन्यथा नहीं- तुम्हारी यह गोताखोरी अथवा जलावगाहन की क्रिया व्यर्थ है। इसमें सन्देह नहीं कि जो चीज वहाँ मौजूद ही नहीं वह वहाँ पर कितनी भी ढूंढ/खोज क्यों न की जाय कदापि नहीं मिल सकती। कोई चीज ढूंढने अथवा तलाश करने पर वहीं से मिला करती है जहाँ पर वह मौजूद होती है। जहाँ उसका अस्तित्व ही नहीं वहाँ से वह कैसे मिल
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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