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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 तत्त्वज्ञान नहीं होगा, तब तक तत्त्वदृष्टि नहीं बन सकती। वह तत्त्वज्ञान सद्शास्त्रों के अध्ययन, मनन, चिन्तन से ही संभव हो सकता है, क्योंकि बिना तत्त्वज्ञान के आत्मकल्याण होना असंभव है। आचार्य देवसेन स्वामी ने तत्त्व के भिन्न प्रकार से दो भेद किये हैं। स्वगत तत्त्व तथा परगत तत्त्व। उनके अनुसार स्वगत तत्त्व निजात्मा और परगत तत्त्व सभी जीवों के आश्रयभूत पंच परमेष्ठी हैं। इन पंच परमेष्ठी के चितवन करने से किस प्रकार के फल की प्राप्ति होती है, तो आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं किउन पंच परमेष्ठियों के वाचक अक्षर रूप मंत्रों का ध्यान करने वाले भव्य जीव बहुत पुण्य का अर्जन करते हैं और उनको परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य देवसेन स्वामी ने इसमें आत्मा को विभिन्न उपमाओं से अलंकृत किया है। शुद्धात्म तत्त्व की प्राप्ति का उपाय, परम लक्ष्य शुद्धात्मा सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप भी अत्यन्त सुन्दरता से वर्णित किया है। अन्त में अन्य दर्शनों में आत्मतत्त्व का विवेचन को प्रस्तुत करके जैनदर्शन में वर्णित आत्मा का मण्डन किया है।
श्रमण परम्परा में दो धर्मों का निरूपण किया है। मुनिधर्म और श्रावकधर्म। जो शिथिलाचारी साधु अपने शिथिलाचार को छुपाने के लिए विभिन्न कल्पनाओं की रचना करते हैं और कहते हैं कि हम तो स्थविरकल्पी हैं, इसलिए हमको कंबल, दण्ड, वस्त्र, सोना आदि रखने में कोई दोष नहीं है। जबकि उनके परिणाम संशय और मिथ्यात्व आदि से सहित होते हैं। उनको फटकार लगाते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि कंबल आदि रखना स्थविरकल्प नहीं बल्कि गृहस्थकल्प है, क्योंकि ये सब रखना तो गृहस्थों का कार्य है। इसी सन्दर्भ में जिनकल्पी और स्थविरकल्पी के वास्तविक स्वरूप का वर्णन सहजभाव से किया है। इस प्रकार आचार्य देवसेन स्वामी ने जैनागम के प्रत्येक सिद्धान्तों को अपनी दार्शनिक दृष्टि से स्पर्श करने का सफलतम प्रयत्न किया है जो निश्चित रूप से उनको दसवीं शताब्दी का महान् आचार्य द्योतित करता है। आचार्य ने ऐसे कई विषयों का विवेचन किया है जो अन्य किसी भी आचार्य ने वर्णित नहीं किये हैं। ये इनकी विशेषता ही है कि इनका इतने सारे विषयों पर समान अधिकार है।
-उपनिदेशक, वीर सेवा मन्दिर,
21,दरियागंज, नई दिल्ली-2