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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 महत्त्व, कुपात्रों को दान का फल, नहीं देने योग्य द्रव्य और आहार दान में ही चारों दानों को गर्भित करते हुए अच्छी प्रकार से आहार दान के महत्त्व का वर्णन किया है। अपने द्रव्य को किस प्रकार सदुपयोग में लगाना चाहिये, इसका भी उपदेश दिया ।
पुण्यास्रव के मुख्य कारणों में जिनपूजा का विशेष वर्णन करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी ने पूजा की विधि, पूजा के यन्त्र की विधि, पूजा के फल का विशद रूप से प्ररूपण किया है। इस प्रकार से पूजा की विधि अन्य किसी आचार्य ने वर्णित नहीं की है। संक्षेप से श्रावकों के अष्ट मूलगुण और अणुव्रत सहित बारह व्रतों का भी वर्णन किया है। शिक्षाव्रत के भेदों में सल्लेखना को भी ग्रहण किया है।
भारत धर्मनिरपेक्ष देश होने के कारण विभिन्न धर्म, दर्शन और सम्प्रदायों का समूह है। प्रत्येक दर्शन के सिद्धान्त पृथक्-पृथक् हैं। समस्त दार्शनिकों अथवा मत प्रवर्तकों का मुखिया आदिब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव का महामोही और मिथ्यात्वी पौत्र मरीचि पूर्वाचार्यों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। उसने ऐसे विचित्र दर्शन का प्रवर्तन किया कि जिससे कुछ सिद्धान्तों के परिवर्तन से अनेक मतों का प्रवर्तन हो गया। आचार्य देवसेन स्वामी के अनुसार मरीचि सभी मतों का साक्षात् प्रणेता नहीं है, उन मतों में कुछ उतार-चढ़ाव होते रहे और विभिन्न मत प्रचलित हो गये। इनमें सिद्धान्तों का बीज मरीचि का ही है और ये सभी एकान्त को पुष्ट करने वाले होने से सदोष कहलाये। अतः जैनाचार्यों ने स्याद्वाद से इन सभी मतों की समीक्षा की। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार मरीचि सांख्य और योग का प्ररूपक है, जबकि सांख्य के प्रणेता कपिल और योग के प्रणेता पतंजलि हैं, जो ऋषभदेव के तो काफी वर्षों बाद उत्पन्न हुए हैं। उन एकपक्षी मिथ्यात्वी मतों को आचार्य देवसेन स्वामी ने भी पांच भेदों में विभक्त किया है। विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान। इन पांचों के पूर्वपक्ष को प्रस्तुत करके उनकी सम्यक् समीक्षा की है। इन मतों की उत्पत्ति, उत्पत्तिकर्ता, उनका पालन करने का फल और उनकी संक्षेप में समीक्षा अच्छी प्रकार से की है। इसी के अन्तर्गत जैन सम्प्रदाय प्रचलित विभिन्न संघों का स्वरूप भी प्ररूपित किया है। उनमें प्रचलित परम्पराओं का भी विशेष रूप से वर्णन किया है। दिगम्बर संघ से काष्ठासंघ, द्रविड़संघ, माथुरसंघ आदि संघों की