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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 पहले भी समझ चुके हैं। नय को समग्र रूप से प्रस्तुत करना एक बहुत बड़ी कला है। उसी प्रकार नयों का योजन विभिन्न स्थानों में भी करना चाहिये। इसीलिए आचार्य देवसेन स्वामी ने एक अलग ही विषय प्रस्तुत किया है, किस-किस द्रव्य में किस-किस नय की अपेक्षा कौन-कौन स्वभाव पाया जाता है।
इसके पश्चात् प्रमाण का स्वरूप और भेद का वर्णन भी आचार्य ने नय के साथ किया है। प्रमाण का लक्षण करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि समस्त वस्तु को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण है। जिस ज्ञान के द्वारा वस्तुस्वरूप जाना जाता है निश्चय किया जाता है, वह ज्ञान प्रमाण है। सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। जिस ज्ञान में प्रयत्नपूर्वक, विचारपूर्वक या इच्छापूर्वक पदार्थ को जानने के लिये उपयोग लगाना पड़े वह सविकल्पक ज्ञान है। यह चार प्रकार है। 1. मतिज्ञान 2. श्रुतज्ञान 3. अवधिज्ञान 4. मन:पर्ययज्ञान। जिस ज्ञान में प्रयत्नपूर्वक, विचारपूर्वक या इच्छापूर्वक पदार्थ को जानने के लिए उपयोग नहीं लगाना पड़े वह निर्विकल्पक ज्ञान है। इसका सिर्फ एक ही भेद है वह है केवलज्ञान। इस प्रकार नय और प्रमाण का वर्णन आचार्य देवसेन स्वामी ने दोनों का विशेष रूप से किया है।
जैन आगम में वर्णित गुणस्थान वस्तुतः जैन दार्शनिकों, आचार्यों एवं तीर्थङ्करों की उन असंख्य मौलिक विवेचनाओं में से एक है, जिसे आज तक अन्य जैनेतर दर्शन स्पर्श भी नहीं कर पाये, न शब्दों से न ही अर्थ से। गुणस्थान को प्राथमिक दृष्टि से देखने पर वर्तमान शिक्षा प्रणाली की तरह दिखता है, परन्तु इस शिक्षा प्रणाली से पूर्णतया अलग ही है, न ही इसके प्रत्येक दर्जे पर समान समय लगता है, न ही क्रम से आगे बढ़ने की अनिवार्यता है और न ही सभी जीव इसमें समान रूप से आगे बढ़ सकते हैं। जैन आगम और सिद्धान्त ग्रन्थों ने गुणस्थान के माध्यम से तीन लोक में व्याप्त समस्त जीवों का वर्गीकरण करके अध्ययन करने का मार्ग पर्याप्त रूप से प्रशस्त किया है। गुणस्थान पद्धति से जीवों के भावों का ज्ञान करना सरल हो गया है। गुणस्थानों में गति आदि की अपेक्षा से संक्षिप्त वर्णन करने से गुणस्थान का स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट हुआ है।
आचार्य देवसेन स्वामी ने गुणस्थानों के अन्तर्गत ही सभी विषयों