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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 ने कहीं भी बाहुबली की प्रतिमा को गोम्मट नहीं कहा है, अपितु इसे दक्षिण कुक्कुडजिन कहकर संबोधित किया है। किन्तु नेमिचन्द्र ने अपनी रचनाओं तथा उत्तरवर्ती टीकाकारों ने स्पष्टरूप से चामुण्डराय के उद्देश्य से ग्रंथ रचा है, ऐसा लिखा है। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने भी नेमिचन्द्र तथा चामुण्डराय को समकालीन माना है।
_ 'जे कम्मे सूरा सो धम्मे सूरा' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए चामुण्डराय ने अपनी भाषा-प्रवीणता का सदुपयोग जैनदर्शन के सूक्ष्म एवं गंभीर विषयों के प्रतिपादन में किया। इनके परिणाम स्वरूप ही आपकी चार रचनायें दृष्टिगोचर होती हैं- 1. चारित्रसार, 2. चामुण्डरायपुराण (त्रिषष्टि लक्षण-महापुराण), 3. गोम्मटसार जीवकाण्ड की वीरमार्तण्ड नामक कन्नड़ी टीका, 4. तत्त्वार्थसार संग्रह। चामुण्डराय के व्यक्तित्व की विशेषताएँ : 1. आज्ञाकारी- चामुण्डराय परम आज्ञाकारी थे। अपनी माता की इच्छापूर्ति हेतु इन्होंने भगवान् बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण कराया। माता की ही इच्छापूर्ति के निमित्त अज्ञात स्थान पर स्थित पोदनपुर की बाहुबली की अलौकिक प्रतिमा के दर्शन के लिए चतुरंगिणी सेना के साथ गये। 2. रसनेन्द्रिय विजयी- अज्ञात स्थान पर स्थित प्रतिमा के दर्शन होने के पूर्व तक दुग्ध-सेवन का त्याग किया। 3. प्रश्रयदाता- कन्नड़ महाकवि रत्र को प्रश्रय दिया। सिद्धान्तचक्रवर्ती आ. नेमिचन्द्र ने चामुण्डराय के आश्रय में निवास करते हुए सुप्रसिद्ध गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि सिद्धान्त-ग्रन्थों का सृजन किया। आचार्य अजितसेन को भी इन्होंने प्रश्रय किया। 4. राजभक्त- द्रुतवेग से पतनशील वंश की अभिभावकता एवं रक्षा के साथ ही उसके अधिपति पतनोन्मुख राष्ट्रकूट सम्राटों का भी संरक्षण चामुण्डराय ने यथाशक्ति किया। स्वयं सामर्थ्यवान् होते हुए भी पदलोलुपता का सर्वथा अभाव था।
अपने धार्मिक एवं नैतिक चारित्र तथा क्रियाकलापों के लिए इन्हें 'सम्यक्त्वरत्नाकर', 'सत्ययुधिष्ठिर', 'गुणरत्नभूषण26', 'देवराज', गुणकाव' आदि उपाधियों से अलंकृत किया है। 5. उत्कृष्ट श्रावक - मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद के वहनकर्ता होने के