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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
जैनाचार आयुर्वेद ही है
- राजकुमार शास्त्री (निवाई)
जैनधर्म सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत है और यह प्ररूपण द्वादशांगरूप में प्ररूपित किया गया है। इस प्ररूपण में विश्व का कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। इसमें सम्पूर्ण विषयों का सर्वांगीण निरूपण है। सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट के दो भेदों में विभाजित किया गया है। सम्पूर्ण विश्व की रचना और उसके क्षेत्र व स्थानों में होने वाली क्रम प्रक्रिया का विशद् वर्णन है। अनन्त जीवों के विविध योनिस्थान, स्वरूप, रंगों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन जहाँ है, वहाँ इनके प्राकृतिक परिवर्तन तथा हलन-चलन रूप क्रिया कलापों का भी विशद विवेचन है। प्रत्येक वस्तु का गुण, अवगुण, परिपाक. विपाक और उससे होने वाले प्रभाव को भी खुलासा किया गया है। उसी के आधार पर जैनाचार्यों ने दर्शन, कला, काव्य, ज्योतिष व वैद्यक, व्याकरणादि सभी विषयों पर अपने महान ज्ञानानुभव के आधार पर अनेक ग्रंथों की रचना की है। 11 अंग और 14 पूर्वो के अन्तर्गत सभी विषय आ जाते हैं। दुर्भाग्य से कहिये या हमारे प्रमाद के कारण इन अंग और पूर्वो के ज्ञान के आधार पर परम्परागत आचार्यों द्वारा रचित नानाविध विषयों पर ग्रन्थ थे उनमें से अनेक शास्त्र या तो दीमकों ने भक्षण कर लिये हैं या धर्मान्ध द्वेषियों ने उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर अग्नि में समर्पित कर दिये। इसी कारण वे महान ग्रन्थ आज हमें दृष्टिगोचर नहीं है, किन्तु जो कुछ हमारे समक्ष हैं, उनके वाचन से हमें उन आचार्यों की सर्वतोन्मुखी प्रतिभा का और उनके अगाध ज्ञान का परिचय अवश्य होता है। जैनाचार्यों द्वारा रचित कुछ ग्रंथों को छोड़कर वैद्यक ग्रंथ आज हमें उपलब्ध नहीं हैं तथापि उपलब्ध आयुर्वेदीय ग्रन्थों का अवलोकन करते हैं तो आयुर्वेद शब्द की व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ इस प्रकार है-'आयुरस्मिन् विद्यते अनेन वा आयुः विदंति इत्यायुर्वेदः' इससे सिद्ध होता है कि आयुर्वेद आयु-जीवन का शास्त्र है। अतः आयु