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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 सम्मत सिद्धान्त है। तीन दोष के सिद्धान्त को मान्य करता हुआ लेखक रक्त को भी दोष की श्रेणी में लाने का प्रयत्न करता है। रोग की चिकित्सा कर्म की उपशान्ति है। उपाय या चिकित्सा की सहायता से रोग के शमन का काल आने पर रोगोपशमन होता है। ऐसा विचार आचार्य उग्रादित्य ने प्रतिपादित किया है। इसी प्रकार चिकित्सा क्रम में रोगी की चिकित्सा करते समय ज्योतिष के अनुसार ग्रह, स्वप्न तथा दोषों की स्थिति का विचार किया है। दोषों के बिना रोगोत्पत्ति सम्भव नहीं है जहाँ रोग विशेष का नाम नहीं है वहाँ दोषों के अनुसार विचार करना चाहिए यह विचार आचार्य चरक के अनुसार है
विकाराणामकुशलो न जिह्वीयान् कदाचन।
न हि सर्वविकारणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः॥ कल्याणकारक में मद्य-मांस-मधु का निषेध -
धार्मिक तथा आत्मिक दृष्टि से अहिंसा एक प्रधान तत्त्व है। जिसे आयुर्वेद में भी स्थान दिया गया है। इसी कारण से मांसाहार का निषेध जैन वैद्यक में किया गया है, अन्यथा नैतिक विरोध उत्पन्न हो जाता। जैनों ने मांसाहार को कभी भी किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया है। जैन वैद्यक में उसका पूर्ण पालन किया गया है। उसी प्रकार मधु का प्रयोग भी वर्जित माना है, मधु में असंख्य जीवों का आश्रय होता है। अतः मांस के तुल्य ही इसे चिकित्सा में स्थान नहीं दिया है। शल्य में अनेक कर्मों का सीमित एवं आवश्यक विधान बताया है।
जैनधर्म के अनुसार मद्य के प्रयोग को सर्वथा निषिद्ध माना है। अतः मद्यपान का चिकित्सा कार्य में कहीं प्रयोग नहीं बताया है। आयुर्वेद चिकित्सा में प्रयोग किये जाने वाले आस्रव, अरिष्ट को भी निषिद्ध माना है। मद्य, मांस व मधु का त्यागी ही जैनी होता है। जैन मतानुयायी के इस गुण को आचार्य उग्रादित्य ने चिकित्सा में सुरक्षित रखा है। गम्भीरता से विचार करने पर मद्य, मांस एवं मधु के दुर्गुणों का ज्ञान रहेगा। जैनदर्शन एवम् तत्त्वज्ञान का अध्ययन इसके लिए अत्यावश्यक है, अन्यथा इसका ज्ञान व अनुभूति दोनों असम्भव है।