SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 आचार्य उग्रादित्य के 'कल्याणकारक' में द्रव्य-गुण चिकित्सा आदि का वर्णन डा. हरिश्चन्द्र जैन, जामनगर जैनधर्म के प्रथम तीर्थकर वृषभदेव हैं। इनका उल्लेख वेदों में भी प्राप्त होता है तो भी जैन धर्म हिन्दु धर्म से अपनी मौलिक विशेषताओं के कारण पृथक् है और है अति प्राचीन। जैनधर्म की अपनी सबसे बड़ी विशेषता है समन्वयात्मक (अनेकान्तात्मक) मार्ग का निर्देश करना। प्रस्तुत 'कल्याणकारक' चिकित्साग्रन्थ भी इसी सरिणी का अनुसरण करता है। ऋषभदेव से प्रारम्भ होकर वर्धमान तक चिकित्सा की जैन वैद्यक परम्परा रही है, किन्तु इस कालखण्ड का कोई प्रामाणिक साहित्य प्राप्त नहीं होता है। तदुपरान्त का जो जैन साहित्य मिलता है उसमें चिकित्साग्रन्थ विरल मिलते हैं। जैन वैद्यक परम्परा आयुर्वेद से विचारधारा में बहुत अधिक भिन्न नहीं है।, तथापि अपनी धार्मिक पृष्ठभूमि के कारण कुछ भिन्न सी प्रतीत होती है। जैन वैद्यक विचारकों ने वाग्भट्ट के समान चरकसुश्रुत आदि के विचारों को समुचित आदर प्रदान किया है और वाग्भट्ट को बौद्ध वैद्यक परम्परा का अनुगामी माना है। ठीक इसी प्रकार कल्याणकारक के रचयिता आचार्य उग्रादित्य ने किया है। यद्यपि उन्होंने ऐसा कहीं भी स्वीकार तो नहीं किया है, उन्होंने आयुर्वेदावतरण भिन्न प्रकार से माना है, तथापि जैन वैद्यक की परम्परा में बहुत से उपयोगी चिकित्साशास्त्र के सिद्धान्त है यह सिद्ध हो जाता है। कल्याणकारक के अध्ययन से ज्ञात होता है कि धर्म का दर्शन, विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र पर कैसे प्रभाव होता है, यह ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तु है। अनेक विचारधाराओं में मध्य में रहते हुए उनसे तालमेल रखते हुए अपना अस्तित्त्व बनाना महत्वपूर्ण हैं। कल्याणकारक चिकित्साग्रन्थ के रचयिता आचार्य उग्रादित्य थे।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy