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________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 आई सन्तानता (सर्वसत्वेषुकृपालुत्वम् ) त्यागः कायवाक्चेतसां दमः। स्वार्थबुद्धि परर्थेषु पर्याप्तमिति सद्वृतम्॥ संसार के समस्त प्राणियों के प्रति करूणा भाव (अनुकम्पा) अनावश्यक परिग्रह का त्याग, मन वचन काय पर सुशासन। दूसरे के प्रति आत्मसद्भावना, इतना ही सदाचार का स्वरूप है। इस प्रकार आयुर्वेद व जैनाचार में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के कारण आंशिक मत वैचित्र्य होते हुए भी उनके समोद्देश्य व भावना मूलक पवित्र सम्बन्ध से इन्कार नहीं किया जा सकता है। वे परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। ****** पाँच प्रकार की वायु होती है - १. प्राण वायु- 'मुखे वसति योऽनिलः प्रथित नामतः प्राणकः' मुख में जो वायु वास करता है, उसे प्राण वायु कहते हैं। जो अन्न पान आदि को पेट में पहुँचाता है। यदि यह कुपित हो जाये तो दमा खाँसी, हिचकी इत्यादि रोग उत्पन्न होते हैं। २. उदान वायु- 'शिरोगत इहाप्युदान इति विश्रुतः सर्वदा' मस्तक में रहने वाली वायु उदान नाम से प्रसिद्ध है। यदि यह कुपित हो जाये तो कंठ, मुख, कर्ण, मस्तक आदि में रोगों को पैदा करता है। ३. समान वायु- जो वायु उदर (अमाशय व पक्वाशय) में रहता है यह अग्नि के प्रदीप्त होने में सहायक होने से भोजन को पचाता है। ४. अपान वायु- “अपान इति योऽनिलो वसति वस्तिपक्वाशये" । अपान वायु पक्वाशय में रहता है। वह योग्य समय में मल-मूत्र रजो-वीर्य आदि को बाहर निकालता है। इसके कुपित होने पर गुद व मूत्राशयगत रोग, मलावरोध,मूत्रावरोध,मूत्रकृच्छ्र आदि रोग उत्पन्न करता है| ५. व्यान वायु- जो शरीर के सम्पूर्ण भाग में व्याप्त होकर रहता है उसे व्यान वायु कहते हैं। रक्त संचालन, पित्त-कफ आदि को यथास्थान पहुँचाना। कुपित होने पर हमेशा सर्वांगवात, सर्वांगकंप एवं विकृत वेदना युक्त रोगों को पैदा करता है।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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