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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 अभ्युदय) की प्राप्ति में फलितार्थ होता है। अपने कथन के प्रमाण में आयुर्वेद के सप्रसिद्ध अन्यतम आचार्य, वाग्भट संहिता के लेखक वाग्भट का निम्न श्लोक ही पर्याप्त होगा।
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियाः। प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥
(वाग्भट सू.) जिस व्यक्ति के वात-पित्त-कफ दोष समान है, रस रक्तादि धातुओं का निर्माण व मल मूत्र का विसर्जन स्वाभाविक रूप में होता है, तथा मन इन्द्रियाँ और आत्मा प्रसन्न है वह स्वस्थ है। यहाँ संसारावस्था में मन और आत्मा की प्रसन्नता न केवल इच्छानप आहार पर निर्भर है, अपितु आकुलता के उत्पादक रागद्वेषादि दोषों की कमी व अभाव की अपेक्षा रखती है। फिर आत्मा की आत्यन्तिक प्रसन्नता तो रागद्वेषादि दोषों से नितान्त छुटकारा मिलने पर ही होती है। इसी परम शुद्ध अवस्था का नाम पूर्ण स्वास्थ्य और उसके नायक जीव का नाम स्वस्थ है। “स्वे आत्मानि तिष्ठतीति स्वस्थः।" स्पष्ट है कि जैनाचार्य का अंगांगिभाव सम्बन्ध है। अपने मन्तव्य के समर्थन में जैनेत्तर आयुर्वेद के कुछ उद्धरणों का उल्लेख जो उपयोगी हैं, दिये जा रहे हैं।
तदु:ख संयोगो व्याधय उच्यन्ते। ते चतुर्विधा-आगन्तवः, शरीराः मानसाः, स्वाभाविकाश्चेति। तेषामागन्तवोऽभिघातनिमित्ता। शारीरा स्त्वन्तपान मूला वातपित्तकफशोणितसन्निपात वैषम्यनिमित्ता। मानसास्तु क्रोधशोकभयहर्षविषादेाभ्यसूयादैन्यमात्सर्यकामलोभप्रभृतयः इच्छाद्वेष भेदैर्भवन्ति। स्वाभाविकास्तु क्षुत्पिपासाजरामृत्युनिद्रा प्रभृतयः।। ।
दुखों के संयोग का नाम व्याधि है वे चार प्रकार की होती हैं(1) आगंतुक (अभिघात चोट, अभिषंग अभिचार से पैदा होने वाली) (2) शारीरिक-ज्वर रक्तपित्त आदि (3) मानसिक क्रोध, लोभ, हर्ष ईर्ष्या आदि। (4) स्वाभाविक-भूख, प्यास, बुढ़ापा, नींद, मृत्यु आदि इन्हें दूर करना आयुर्वेद का लक्ष्य है। यही उद्देश्य जैनाचार्य का भी है। अत: यह स्पष्ट है कि जैनाचार बिना आयुर्वेद अधूरा है। जहाँ तक आहार व औषध के रूप में मद्य, और मधु, के सेवन का प्रतिपादन और तन्निमित्त मात्र हिंसा के समर्थन का प्रश्न है, वह आयुर्वेद के प्रणेता आचार्यों के निजी