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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 से बनाए रखता है ऐसा 'जोणिपाहुड' ग्रन्थ है। इस प्रारंभिक प्रशंसा के पश्चात् दश गाथाओं में 'योनिप्राभृत' (जोणिपाहुड) को सर्व रोग हितकारी भी कहा है। जोणिपाहुड और उसके रचनाकार- पाण्डुलिपि की प्रारंभिक संस्तुति में प्रश्वश्रवण महामुनि आचार्य पुष्पदंत एवं भूतबलि के पश्चात् जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसी के आधार पर 'जोणिपाहुड' ग्रन्थ को महाविद्या वाला ग्रन्थ कहा
कलिकाल-सव्वण्हू, जे जोणाइं जोणिपाहुडं गंथं।
जत्थ रओ तत्थ कओ य देहग्गमह विज्जाइ॥ जो कलिकाल सर्वज्ञ है, उन्होंने जो 'जोण' (जीवन जीने की कला) है वही 'जोणिपाहुड' ग्रन्थ जैसा रचा गया, वैसा ही देह रूप महाविद्याओं को मैंने समझा, वैसा ही कहा। योनियों (जीव राशियाँ) जीव उत्पत्ति की योनियाँ चौरासी लाख कही गई है। वे त्रस-स्थावर आदि देह और चैतन्य युक्त हैं, उनकी आयु है, इसलिए आयु का विज्ञान भी है। उस आयु के मध्य रोग-शोकादि, आधि-ब्याधि आदि भी संभव है। उनके उपचार के लिए विविध अधिकारों का 'जोणिपाहुड' ग्रन्थ है।
इस ग्रन्थ के प्रारंभ में संवत् 1582 शाके 1449 स्पष्ट लिखा है। यह पंडित हरिश्रावक विरचित है। जिसे हरिषेण विरचित भी लिखा है। इस 'जोणिपाहड' की दो प्रतियां हैं। प्रथम प्रति में 333 गाथाएं हैं और इसी के अंत में पं. हरिषेण नाम लिखा है। इति पंडित श्री हरिषेण नमया योनिप्राभृत -
इसमें लि. द्राक्षा, पिंडीलि, सिधालक, कासलुक, कपित्थ, कुष्माण्डि, ढिस, त्रिकटुक, सिदी, चतुज्जातक, धान्यक आदि वनस्पतियों के सेवन को निरोगी बनाने वाला कहा गया है। मूलतः यह कौमाभृत्य, शालाक्य, शाल्यहत्थ, कायचिकित्सा, जांगुल, भूतविद्या, रसायन एवं बाजीकरण इन अष्टांग आयुर्विज्ञान से संबन्धित 'जोणिपाहुड' है। ___ इसमें अंशुघातरोग, वातरोग, अतिसार, अपस्मार, उदररोग, कर्णरोग, कासरोग, कुष्ठरोग, क्रिमिरोग, ज्वर, नेत्ररोग, पाण्डुरोग, चित्तरोग, मूत्रचिकित्सा, बालरोग, मूर्छा, मस्तिष्क, हृदयरोग आदि का विवेचन और उसके उपचार आदि पर प्रकाश डाला गया है। जिन्हें अधिकार रूप में प्रतिपादित किया गया है। अतिसाराहियार, श्वासाहिकार, पित्ताधिकार, ज्वराधिकार, प्रमेहाधिकार