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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 करने की सिद्धि होती है, अर्थात् विग्रहगति में भी कर्म आते रहते हैं।
__ आचार्य विद्यानन्द महाराज ने जो उक्त सूत्र की व्याख्या लिखी है, वह पूर्ववर्ती आचार्य पूज्यपाद, अकलंक स्वामी एवं वीरसेन आचार्य के अनुसार ही लिखी है, परन्तु कर्मादान की युक्तिपूर्वक सिद्धि आचार्य विद्यानंद ने ही की है। लिखते हैं -
गतौ तु विग्रहार्थायां कर्मयोगो मतोऽन्यथा।
तेन सम्बन्धवैधुर्याद् व्योमवन्निर्वृतात्मवत्।। गमन के समय विग्रहगति कार्माण काययोग होता है अन्यथा विग्रहगति में कर्मों के सम्बन्ध से रहित हो जाने से आकाश के समान जीव सर्वथा कर्मशून्य हो जायेगा अर्थात् मुक्तात्मा के समान कर्मलेप से रहित हो जायेगा। ऐसी दशा में मरण के अनन्तर मुक्ति हो जायेगी।
आचार्य विद्यानंद स्वामी ने उक्त कारिका में प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण के द्वारा यह बतलाया है कि जो प्रतिवादी शरीर के निमित्त हो रही जीव की गति में कर्मयोग को कारण नहीं मानता है, उनके यहाँ आकाश के समान दृष्टान्त देकर अत्यन्ताभाव और मुक्तात्मा के समान दृष्टान्त द्वारा कर्मों के सद्भावपूर्वक रिक्तता को सिद्ध करता है। और साथ में विपर्यय हो जाने का प्रसंग आयेगा अर्थात् वह मुक्तात्मा पुनः कर्मों से लिप्त हो जायेगी।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार आत्मा व्यापक है। अतः उत्तरभाव के जन्मस्थानों में पहले से ही ठहरा हुआ है। एतदर्थ उत्तर शरीर को ग्रहण करने के लिए गमन की कोई आवश्यकता नहीं है। पहले के योग और कर्मबंध सब वैसे के वैसे ही बने रह सकते हैं। फिर हमारे ऊपर आकाश या मुक्तात्मा के समान कर्मरहितपने का प्रसंग या विपर्यय हो जाने का दोष नहीं आयेगा।
आचार्य विद्यानंद स्वामी आत्मा के व्यापकपने का निषेध और उसका गतिपना सिद्ध करने के लिए दो हेतुओं का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि क्रिया के हेतु, गुणयुक्त होने से आत्मा के गतिपना है अर्थात् आत्मा व्यापक नहीं है, अपितु क्रियावाला है। जैसे कि फेंके जा रहे ढेले में क्रिया का हेतु प्रयत्न या जीव विपाकी गतिकर्म के उदय से होने वाला गतिभाव