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________________ अनेकान्त 68/4 अक्टू-दिसम्बर, 2015 जिसके कारण किसी पूजा - भक्ति से आप प्रसन्न होते हैं। इसी तरह निन्दा से भी आपका कोई प्रयोजन नही। कोई कितना ही आपको बुरा कहे जरा भी क्षोभ नहीं आ सकता । तो भी आपके पुण्य गुणों के स्मरण से हमारा चित्त पापों से छूटकर पुण्य - परिणति से पवित्र हो जाता है आपकी उपासना पाप-प्रकृतियों का रस (अनुभाग) सूखने और पुण्य प्रकृतियों में रस बढ़ने से अन्तराय कर्म नाम की प्रकृति, जो मूल पाप-प्रकृति है, हमारे दान, लाभ, भोगोपभोग आदि में विघ्न स्वरूप रहा करती है, उन्हें नहीं होने देती वह निर्बल पड़ जाती हैं। तब हमारे बहुत से लौकिक प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं। अतः परमात्मा की सच्ची भक्ति और उपासना से लौकिक प्रयोजन की सिद्धि होती है, यह कहना भी अनुचित नहीं होगा । एक आचार्य ने निम्न वाक्य से उक्त आशय की पुष्टि की हैनेष्टं विहन्तु शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकदाऽर्हदादेः ॥ अर्थात् परमात्मा की सच्ची पूजा और भक्ति से हमारे लौकिक प्रयोजन भी सधते हैं। यद्यपि परमात्मा स्वयं अपनी इच्छापूर्वक किसी को कुछ देता/दिलाता नहीं है और न स्वयं आकर अथवा अपने किसी सेवक को भेजकर भक्त जनों का कोई काम ही सुधारता है, तो भी उसकी भक्ति का निमित्त पाकर हमारी कर्म - प्रकृतियों में कुछ उलट-फेर होता है, और हमारे अनेक बिगड़े हुए काम भी सुधर जाते हैं। अतः परमात्मा के प्रसाद से लौकिक प्रयोजन भी सिद्ध होते हैं। ऐसा कहने में, सिद्धान्ततः कोई विरोध नहीं आता। परन्तु फल प्राप्ति का यह सारा खेल उपासना की प्रशस्तता, अप्रशस्तता और उसके द्वारा उत्पन्न हुए भावों की तरतमता पर निर्भर है। अतः हमें भावों की उज्ज्वलता और निर्मलता पर भी ध्यान रखना चाहिए। ****** 11
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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