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________________ अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 83 कुन्दकुन्द, उमास्वामि, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानंद, हरिभद्र, माणिक्यनंदि, प्रभाचंद आदि आचार्यों ने जैनदर्शन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। नैयायिकों ने सृष्टि की खदान से शोध पूर्वक पदार्थोंों को खोजकर उनकी संख्या, स्वभाव आकार एवं उनका परस्पर सम्बन्ध भी न्याय शास्त्र से निश्चित किया है। अतः यह शास्त्रदर्शन पदार्थ परीक्षण रूप है। न केवल समग्र दर्शन शास्त्र अपितु सामान्य व्यवहार में भी न्याय परिभाषा का अतीव महत्त्व है इसीलिए सभी दर्शनों के व्यवहार का द्वार न्याय दर्शन को माना जाता है। उपनिषद् में उपलब्ध विद्या के भेद को बाद के विद्वानों ने प्रतिपाद्य वस्तुतत्त्व के आधार पर विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है । अर्थशास्त्र में 'कौटिल्य' (327 ई पू.) द्वारा मान्य विद्या भेदों का निर्देश आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति इन चार नामों से किया है। "आन्वीक्षिक्या हि विवेचिता त्रयी वार्त्ता दण्डनीत्योः प्रभवति" अर्थात् 'आन्वीक्षिक्या' - प्रमाणों और तर्कों से विवेचित त्रयी, वार्ता, वेद और दण्डनीति का आदेश कर सकते हैं, कहकर आन्वीक्षिकी का महत्त्व बताया है। धर्माधर्म का निर्णय वेदी से होता है, अर्थानर्थ का निर्णय वार्ता से अर्थात् वाणिज्य विद्या से होता है। कौटिल्य ने इस विद्या का महत्त्व दर्शाते हुए लिखा है प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । आश्रयः सर्वधर्माणां सेयमान्वीक्षिकीमता ॥ अर्थात् आन्वीक्षिकी सभी विद्याओं का प्रदीप - प्रकाशक है। सभी कर्मों का उपाय और सभी धर्मों का आश्रय है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह विद्या सम्यग्व्यवहार साधनभूत है। न्यायसूत्र भाष्यकार वात्स्यायन कहते हैं कि-‘इमास्तुचतस्रोविद्याः पृथक् प्रस्थानाः प्राणभृतामनुग्रहाय उपदिश्यन्ते। यासां चतुर्थीयमान्वीक्षिकीन्याय विद्या । तस्याः पृथक प्रस्थानाः संशयादयाः पदार्थाः तेषां पृथग् वचनमन्तरेण, अध्यात्मविद्यामात्रमियंस्यात् यथोपनिषद्'° अर्थात् तत्त्वज्ञानग्रन्थों में संशयादिकों का विवरण नहीं है, न्याय शास्त्र ने संशय का विवरण करते हुऐ संशय निराकरण पूर्वक तत्त्व - ज्ञान की प्रस्थापना की पद्धति बताई है। यही कारण है की न्याय शास्त्र के अध्ययन बिना तत्त्वज्ञान का अध्ययन कभी नहीं हो सकता। न्याय शास्त्र का चरम प्रयोजन निश्रेयस सिद्ध ही है। संशय रहित निश्रेयस प्राप्ति यह न्याय का प्रमुख उद्देश्य है।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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