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________________ 26 अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 बतलाता है। वस्तु के इस प्रतिक्षण परिवर्तनशील स्वभाव के कारण अनेकान्त की चिंतन प्रक्रिया आई। आचार्य हरिभद्र ने इस अभिप्राय को ध्यान में रखकर ही उक्त श्लोक कहा। इसका यह अभिप्राय है कि जिस कारण उत्पादादि तीन धर्मवाली ही वस्तु परमार्थ सत है, इसीलिए सभी वस्तुएं अनन्त धर्मवाली हैं और वे ही प्रमाण की विषय होती है। वस्तु अनन्त धर्मवाली है, इसीलिए उसमें उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मकता सिद्ध होती है। इसलिए अनुमान का प्रयोग इसमें से उद्भावित होता है कि वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। इसलिए अनन्त धर्मात्मक है। जो अनन्त धर्मात्मक नहीं है, वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यातक भी नहीं है, जैसे आकाश-कुसुम। इस प्रकार यह व्यतिरेकी अनुमान है। जिस प्रकार अनन्त धर्म एक वस्तु में होते हैं, वह ऊपर बता चुके हैं। धर्म उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। धर्मी द्रव्य रूप से सदा नित्य बना रहता है। (षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. ३५३, तथा आप्तमीमांसा श्लोक ५७)। यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वस्तु से भिन्न है और उनके संबंध से वस्तु में सत्व आता है- ऐसी बात नहीं है। किन्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक ही सत्व है। ये तीनों वस्तु के स्वरूप ही है। जैसे पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष आदि सब वस्तु द्रव्य स्वरूप से न तो नष्ट होते हैं और न ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उनमें द्रव्य का परिस्फुट रूप से निर्बाध अन्वय देखा जाता है। यह निर्बाध सिद्धान्त है कि किसी भी असद् द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती और न सत्व का अत्यन्त नाश होता है। रूपान्तर अवश्य होता रहता है। उसमें रूपान्तर होने का अर्थ ही यह है कि पूर्व रूप का नाश और उत्तर रूप की उत्पत्ति। अतः पर्याय रूप से सब वस्तु उत्पन्न होती है और नष्ट होती है। तथा द्रव्य रूप से उसमें ध्रौव्य है। (षड्दर्शनसमुच्चय पृ. ३४७) जो पदार्थ वाले नहीं है, असत् हैं, उनके स्वरूप लाभ हो जाने को उत्पाद कहते हैं। विद्यमान पदार्थ की सत्ता का नष्ट हो जाना- उसकी सत्ता का वियोग होना विनाश है। इन उत्पाद और विनाश के होते हुए भी द्रव्य रूप से अन्वय रहना ध्रौव्य है। इस तरह उत्पादादि के असंकीर्ण लक्षण सभी अनुभव में आते हैं। ये उत्पादादि लक्षण भेद से भिन्न होकर भी परस्पर सापेक्ष है- एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। ये परस्पर निरपेक्ष होकर अत्यंत
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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