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________________ 57 अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 धनवान निर्धन का उपहास करता है। पर-निन्दा, चुगली दूसरों पर संदेह करता है एवं भयभीत रहता है। महापरिग्रही को मरते वक्त भी आर्तध्यान आता है जैसे मोहम्मद गजनी हाय मेरी प्यारी दौलत मुझसे छुट रही है। शासनकर्ता रक्षक भी रिश्वत, भ्रष्टाचार टैक्स चोरी, अत्याचार करके धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन करता है। परिग्रह को दुख का मूल बताते हुए आचार्य शुभचन्द्र ज्ञानार्णव में लिखते है। संगात्कामस्ततः क्रोधस्त स्मादिंसा तयाऽशुभम् तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां, दुखं वाचामगोचरम् अर्थ-परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध. क्रोध से हिंसा. हिंसा से पाप और पाप से नरकगति होती है। अतः दुखों का मूल अर्जन है। अर्जन के कारण :* भौतिक समृद्धि में भी सुख मानना । साधन सम्पन्न व्यक्ति यही स्वर्ग मानता है। * मन्दिर निर्माण, दान की अपार महिमा, प्रतिष्ठा, धार्मिक कार्यो से ही स्वर्ग की प्राप्ति का प्रलोभन जुड़ गया है जो धन के बिना संभव नहीं। * अर्जन का तीसरा कारण मनौवैज्ञानिक है। व्यक्ति सुरक्षा चाहता है। अंगरक्षक, घर, सवारी आदि शरीर को आरामदायक बनाये रखने में साधन जुटाता है। * आज मुठ्ठीभर लोगों का अर्जन असंख्य लोगों को गरीबी का जीवन जीने के लिये विवश कर रहा है। पदार्थ सीमित है। उपभोक्ता की आवश्यकता असीम है। वह रेगिस्तान को फलों से भरना चाहता है। अत्याचार प्राकृत मूल संसाधनों पर कर रहा है। पर्यावरण का संकट इसी की उपज है। महावीर ने कहा वणकम्मे भाडीकम्मे, फोडीकम्मे अर्थात जंगलों की कटाई न हो, भूमि का उत्खनन न हो। प्रकृति की सुरक्षा हमारी सुरक्षा * वर्तमान में सामाजिक मूल्यों से भी अर्जन प्रवृत्ति प्रभावित हुई है। दहेज-प्रथा, रिश्वत, भ्रष्टाचार, होड, राजनीति। युवा-पीढी के कलाकारों चरित्रवान, चिन्तनशील व्यक्तियों की पहचान नहीं रही।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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