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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
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करता तथा सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर लेने पर उसे नरकादि गतियों में फलभोग भी नहीं करना पड़ता।४९ चातुर्याम एवं पंच महाव्रत :
पार्श्वनाथ की परम्परा में चातुर्याम धर्म था एवं भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को पृथक् कर पंच महाव्रत का स्वरूप प्रदान किया। नारद अध्ययन में चातुर्याम धर्म का ही संकेत मिलता है, क्योंकि नारद तीर्थकर अरिष्टनेमि के समय पर हुए। अर्हत् नारद ऋषि ने इन्हें चार श्रोतव्य लक्षणों के रूप में प्रतिपादित किया है। व्यक्ति तीन करण (कृत, कारित एवं अनुमोदित) तथा तीन योग (मन, वचन एवं काया) से प्राणातिपात न करे, न दूसरों से करवाए, यह प्रथम श्रोतव्य लक्षण है। इसी प्रकार मृषाभाषण एवं अदत्तादान के त्याग को क्रमशः द्वितीय एवं तृतीय श्रोतव्य स्वीकार किया गया है। चतुर्थ श्रोतव्य में अब्रह्म एवं परिग्रह दोनों का कथन एक साथ करते हुए कहा गया है कि साधक न तो इनका सेवन करे और न दूसरों से करवाए।५° पुष्पशाल अध्ययन में प्राणातिपात आदि पाँच पापों के त्याग का कथन है
ण पाणे अतिवातेज्जा, अलियादिण्णं च वज्जए।
मेहुणं च ण सेवेज्जा, भवेज्जा अपरिग्गहे॥५१ पैंतालीसवें वैश्रमण अध्ययन में अहिंसा की प्रतिष्ठा करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार शास्त्र-प्रयोग से या अग्नि से स्वयं के शरीर में घाव या जलन की वेदना होती है, उसी प्रकार अन्य जीवों को भी हिंसा से वेदना का अनुभव होता है। प्राणघात सब प्राणियों को अप्रिय है तथा दया सबको प्रिय है। इस तथ्य को जानकर प्राणि-घात का वर्जन करना चाहिए। अहिंसा सब प्राणियों को शान्ति उपजाने वाली है, यह सब प्राणियों में अनिन्दित ब्रह्म है।
आचारमीमांसा के अन्तर्गत साधवाचार प्रमुख है। साधवाचार के अन्तर्गत चातुर्याम धर्म अथवा पंच महाव्रत के अतिरिक्त पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि का भी विशेष महत्त्व है। इसिभासियाइं में इनका भी यथावसर उल्लेख हुआ है। साधु के लिए स्वाध्याय और ध्यान का विधान है। इसका संकेत विदु ऋषि ने किया है, यथा
सज्झायझाणोवगतो जितप्पा, संसारवासं बहुधा विदित्ता। सावज्जवुत्ती करणे*ठितप्पा, निरवज्जवित्ती तु समायरेज्जा।।१२