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________________ 23 अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 ४० मधुरायण ऋषि कहते हैं कि आत्मकृत कर्मों का फल आत्मा स्वयं भोगती है, अतः आत्मा के हित के लिए पापकारी कार्यों का वर्जन करना चाहिए। ** हरिगिरि अध्ययन में भी कहा गया है कि प्राणी जो नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्म करता है उसी के अनुसार नाना अवस्थाओं को प्राप्त करता है।३८ तीसवें वायु अध्ययन में भी कहा गया है कि जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल प्राप्त होता है उसी प्रकार नाना प्रयोगों से निष्पन्न सुखद या दुःखद कर्म किया जाता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है- जारिसं किज्जते कम्मं, तारिसं भुज्जते फलं । ९ जैनदर्शन में अष्टविध कर्मों का विवेचन प्राप्त होता है। इसिभासियाई में अष्टविध कर्म शब्द तो आया है, किन्तु इन कर्मों के नामों का उल्लेख नहीं हुआ है। आठ कर्म हैंज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को आवरित करता है, दर्शनावरण कर्म जीव के दर्शन गुण (स्वसंवेदन) को आवरित करता है, वेदनीय कर्म सुख-दुःख का वेदन कराता है, मोहनीय कर्म दृष्टि एवं आचरण को मलिन करता है, क्रोध, मायादि विकारों को प्रकट करता है। आयु कर्म के कारण मनुष्यादि भव की एक निश्चित अवधि के लिए प्राप्ति होती है। नामकर्म से शरीर, इन्द्रियादि की प्राप्ति होती है। गोत्रकर्म से जीव में उच्चता एवं नीचता के संस्कार आते हैं तथा अन्तराय कर्म के कारण जीव के दान ( उदारता ), लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य (शक्ति) आदि गुण बाधित होते हैं। मान, कर्म के आदान या आस्रव के कारणों का उल्लेख महाकाश्यप अध्ययन में हुआ है। वहाँ पर मिथ्यात्व अविरति ( अनिवृत्ति), प्रमाद, कषाय एवं योग को कर्मास्रव का कारण कहा गया है। ४१ जैन दर्शन के तत्त्वार्थसूत्रदि ग्रन्थों में बन्ध- हेतु के ये ही पाँच प्रकार निरूपित हैं। इन्हीं से कर्मों का बंध होता है। ऋषि महाकश्यप का कथन है कि संसारी प्राणी के लिए कर्म का वही स्थान है जो अंडे और बीज का है। कर्म के अनुसार ही जीव सन्तान, भोग एवं नाना अवस्थाओं को प्राप्त करता है । ४२ संसार की परम्परा का मूल पूर्वकृत पुण्य और पाप है। अतः पुण्य एवं पाप के निरोध के लिए सम्यक् परिव्रजन करना चाहिए। संसार में अशान्ति का मूल कर्म है- कम्ममूलमणिव्वाणं संसारे सव्वदेहिण। संसार के जितने दुःख एवं कष्ट हैं, वे प्रायः पूर्वकृत कर्म के कारण प्राप्त होते हैं। महाकाश्यप अध्ययन
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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