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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 “तियञ्च गाय-भैंस आदि मनुष्य, स्त्री, स्वेच्छाचारिणी, वेश्या आदि भवनवासिनी, व्यन्तर आदि विकारी वेशभूषा वाली देवियाँ अथवा गृहस्थ जन सहित गृहों को/ वसतिकाओं को छोड़ देना चाहिए।२७
उक्त जिनाज्ञा को मानते हुए यदि मुनिजन गृहस्थों के साथ कोठियों गृहों में रहना छोड़ दे तो उनकी चर्या तो निर्दोष चलेगी ही और जिनधर्म की प्रभावना भी होगी। रसत्याग :- रसों के त्याग को रसत्याग कहा जाता है। दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक तथा घृतपूर्ण, अपूप, लड्डू आदि को जो त्याग करना है, इनमें एक-एक या सभी का छोड़ना तथा तिक्त, कटुक, कषायले खट्टे और मीठे इन रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है।२८ इन्द्रियों के जीतने वाले मुनिराज घृतादिगरिष्ठ रसों के त्यागी होते हैं। इस तप में मक्खन, मद्य, मांस, मधु महा अनर्थकारी है। दोषों को उत्पन्न करने वाले होने से विकृतियां हैं। यावज्जीवन सर्वथा त्याज्य हैं।३०
तत्त्वार्थवार्तिककार ने रसों के भेद न गिनाकर “घृतादिरसत्यजनंय" घत, दही, गड, तेल आदि रसों को छोडना रसत्याग है। इतना ही कहा है साथ में प्रश्न किया है कि जितनी भी पौद्गलिक वस्तुएँ हैं, सभी रस वाली हैं, उन सबका उल्लेख होना चाहिए तब अकलंकदेव ने उत्तर दिया कि यहाँ विशेष रस से प्रयोजन है जो रस इन्द्रियों को विशेष रीति से लालायित करने वाला है, उसी का त्याग आवश्यक है। तत्त्वार्थसार में नमक को रस नहीं गिनाया। मात्र तेल, क्षीर, इक्षु, दधि और घी को लिया है। तत्त्वार्थवार्तिक में नमक को ग्रहण किया गया है। इस तप से प्रबल इन्द्रियों का विजय होता है। रसऋद्धि आदि महाशक्तियाँ प्रगट होती हैं और सज्जनों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।३२ कायक्लेश :- अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना, मौन रखना, आतापन, वृक्षमूल, सर्दी में नदी तट पर ध्यान करना आदि क्रियाओं से शरीर को कष्ट देना कायक्लेशतप है।३ मूलाचार में कहा है “खड़े होना कायोत्सर्ग करना, सोना, बैठना और अनेक विधि नियम ग्रहण करना इनके द्वारा आगमानुकूल कष्ट सहन करना यह कायक्लेश तप है। इस तप को आसन शयन आदि क्रियाओं के माध्यम से करना चाहिए। आसन-वीरासन, स्वस्तिकासन वज्रासन, पद्मासन, हस्तिशुण्डासन आदि शयन-शवशया, गोशया, दण्डशया तथा चापशया। इनके सिवाय शरीर से ममत्व छोड़कर श्मशान