SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 67 मुनिराज प्रभाचन्द्र (पूर्वनाम - र -सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य -1 ) की कान्तार- चर्या -मूल लेखक - अपभ्रंश - महाकवि रइधू प्रो. डॉ. राजाराम जैन - जो स्थल पुण्य-पुरुषों की चरणरज से संस्पर्शित होते हैं वे आगामी -युगों में निश्चय ही पावन तीर्थभूमि के रूप में पूजित होते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द आदि अनेक आचार्यों ने उनका भक्तिभाव से स्मरण किया है। ऐसे स्थल भारत में बिखरे पड़े हैं, भले ही उनमें से कुछ भौगोलिक परिवर्तनों के कारण लुप्त - विलुप्त हो चुके हों अथवा स्थानीय परिस्थितियों के प्रभाव से उनके नामों में संकोच, विस्तार अथवा कुछ परिवर्तन या परिवर्धन हो चुके हों। जैसे- सम्मेद शिखरजी के लिए शिखरजी, चित्रकूट (राजस्थान) के लिए चित्तौड़, कटवप्र के लिये श्रवणबेलगोला, आरामनगर ( अर्थात् बगीचों का नगर) के लिये आरा (बिहार), काशी के लिये वाराणसी या बनारस, पुण्यत्तन के लिये पूना या पुणें, उपाध्याय के लिए झा - आदि-आदि। काल-प्रभाव से तीर्थ-भूमियों के नामों में भले ही परिवर्तन हो जाय किन्तु उनके चामत्कारिक अतिशय में परिवर्तन नहीं होता जिसका एक ज्वलन्त उदाहरण है कटवप्र (श्रवणवेलगोला) की कान्तार-चर्या अर्थात् निर्जन अटवी में भी निर्दोष तपस्या के चमत्कार से शास्त्रोक्त - विधि से दैवी - शक्ति द्वारा निर्मित मुनि - आहार की प्राप्ति । आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) ने वटवप्र की गुफा में आकाशवाणी से जब सुना कि उनका अन्त समय आ गया है, अतः उन्होंने आचार्य विशाख के नेतृत्व में अपने 12000 साधुसंघ को चोल - देश (दक्षिण-भारत) की ओर भेज दिया था। किन्तु अपने नवदीक्षित पट्ट - शिष्य मगधाधिपति सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) को उसके बारम्बार अनुनय-विनय करने पर उक्त आचार्य भद्रबाहु
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy