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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 सागारधर्मामृत में पण्डितप्रवर आशाधर जी स्पष्ट लिखते हैं कि प्रमाद रहित होकर मोक्ष के इच्छुक व्यक्तिओं के द्वारा गुरुजनों की सदा ही उपासना की जाना चाहिए। उन गुरुओं की आधीनता से सम्पूर्ण विघ्न उसी प्रकार दूर हो जाते हैं, जिस प्रकार गरुड पक्षी के पंखों को ओढ़कर चलने वाले लोगों के पास सर्प नहीं आ सकते हैं। __ आचार्य श्री सकलकीर्ति द्वारा प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में अत्यन्त विस्तृत वर्णन गुरु-उपासना-विषयक किया गया है। वे लिखते हैं -
'देशका ये तरन्ति स्वयं संसारे दुःखसागरे। तारयन्ति समर्थास्ते परेषां भव्यदेहिनाम्॥ गुरुन् संगविनिर्मुक्तान् ये भजन्ति बुधोत्तमाः।
नाकराज्यादिकं प्राप्य मुक्तिनाथा भवन्ति ते॥२ अर्थात् जो अनेक दुःखों से भरे हुए इस संसार-सागर से स्वयं तरते हैं और समर्थ वे अन्य भव्य जीवों को पार करा देते हैं, ऐसे परिग्रहरहित गुरुओं की जो श्रेष्ठ बुद्धिमान् लोग सेवा करते हैं, वे स्वर्ग, राज्य आदि को पाकर अन्त में मोक्ष के स्वामी बन जाते हैं। कुगुरुओं की उपासना का निषेध करते हुए वे कहते हैं -
‘वरं सर्पारिचौराणां संगं स्यान्न परैः समम्।
मिथ्यात्वपथसंलग्नैरनन्तभवदुःखदम्॥२३ अर्थात् सर्प, शत्रु और चौर आदि का समागम करना अच्छा है, परन्तु मिथ्यात्व मार्ग में लगे हुए इन कुगुरुओं का समागम अच्छा नहीं है। क्योंकि ये अनन्त भवों तक दु:खदायी बनते हैं। ___ इसी प्रकार धर्मापदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार, लाटीसंहिता आदि में गुरु-उपासना के प्रसंग में गुरु का स्वरूप एवं माहात्म्य उपर्युक्त रीति से प्रतिपादित किया गया है। उमास्वामिश्रावकाचार में कहा गया है कि श्रावकों को मनोवांछित कार्य की सिद्धि के लिए इस लोक में संशय रूप अन्धकार के नाश के लिए और परलोक में सुख पाने के लिए गुरुओं की सेवा करना चाहिए। गुणों से संयुक्त गुरुओं की मन-वचन-काय से और कृत-कारित-अनुमोदना से महान् विनय करना चाहिए।