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________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 संपादकीय पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में श्रावक के षडावश्यक कर्म 5 डॉ० जयकुमार जैन आवश्यक का अर्थ : प्रतिदिन के अवश्यकरणीय कर्त्तव्य को आवश्यक कहा जाता है। मूलाचार में श्री बट्टकेराचार्य ने कहा है 'ण वसो अवसो अवस्सकम्ममावासगं त्ति वोधव्वा । १ अर्थात् जो राग-द्वेष आदि के वश में नहीं होता है, वह अवश है और उस अवश का कर्त्तव्य आवश्यक कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी आवश्यक को परिभाषित करते हुए लिखते हैं'जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणंति आवासं । कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो ति णिव्वुत्तो ॥ २ अर्थात् जो अन्य के वश नही है, वह अवश है और अवश के कार्य को आवश्यक कहते हैं। यह आवश्यक कर्म कर्मों का विनाशन करने वाला और निर्वाण का मार्ग कहा गया है। आचार्य वसुनन्दी ने भगवती आराधना की विजयोदया टीका में 'आवासयन्ति रत्नत्रयमति इति आवश्यकाः ' 13 कहकर आवश्यकों को आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराने वाला कहा है। श्रमणों एवं श्रावकों के पृथक्-पृथक् आवश्यकों का कथन आचारविषयक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। सामान्य रूप से आवश्यक का अर्थ जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्यकरणीय क्रियाओं से है । प्राकृतकोश ‘पाइअसद्दमहण्णवो’ में अवश का अर्थ अकाम, अनिच्छु, स्वाधीन, स्वतन्त्र, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों की आधीनता से रहित किया गया है।' श्रावक अपनी भूमिका के अनुसार आवश्यकों का पालन करते हैं।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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