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________________ अनेकान्त 67/1 जनवरी-मार्च 2014 किया जाना इत्यादि । इन बातों को आगमों के कतिपय सम्पादकों ने स्वीकार भी किया है। जैसे आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं- 'चूर्णि की भाषा में 'त' और 'ध' की बहुलता है, जैसे-इत्थितो (इत्थिओ), २.२, सतणाणि (सयणाणि) २.२ जति (जइ) २.९, इत्यादि; 'त' का लोप प्रायः नहीं किया गया है। ये प्रयोग प्राचीन अवश्य हैं, पर हम लोग 'प्राकृत व्याकरण' की सीमा में घिरे हुए हैं, इसलिए वे हमारे लिए अपरिचित हो गए हैं। 'ध' को 'ह' भी प्रायः नहीं किया गया है, जैसे-मधुकार (महुकार), १.५, साधीणे (साहीणे २.३)। सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया का प्रयोग हुआ है, जैसे- अहागडेहिं (अहागडेसु १.४) इत्यादि । ४१ उत्तराध्ययन सूत्र के चौतीसवें अध्ययन में 'पद्मलेश्या' के लिए 'पम्हलेस्सा' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार 'आवश्यक सूत्र' में भी ‘पद्मलेश्या’ के लिए ‘पम्हलेस्सा' शब्द का प्रयोग हुआ है। हम सभी जानते हैं कि प्राकृत व्यापकरण में 'पद्म' शब्द के दो रूप बनते है। 'पोम्म' और 'पउम'।३ फिर यह 'पम्ह' शब्द कैसे आया? कहीं यह प्राचीन अर्धमागधी का रूप तो नहीं ? 77 उपर्युक्त उद्धरणों में से आचार्य महाप्रज्ञ का यह कथन कि "हम लोग 'प्राकृत व्याकरण की सीमा' से घिरे हुए हैं अतः प्राप्त प्रयोग प्राचीन होते हुए भी हमारे लिए अपरिचित हो गए है।" अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं सचमुच में ऐसा लगता है कि आचार्य हेमचन्द्र के द्वारा दिए गए दो सूत्रोंकगचजतदपयवां प्रायो लुक् (८/१/१७७) और खघथधभाम् (८/१/१८७) का आगम सम्पादकों ने इस हद तक प्रयोग कर डाला कि समूची अर्धमागधी भाषा माहाराष्ट्री के समान हो गई, और अर्धमागधी की प्राचीनता काफी हद तक छिन्न-भिन्न होती चली गई। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट समझा जाता है कि आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के बाद अर्धमागधी भाषा के साथ किस प्रकार का मनमाना व्यवहार किया गया होगा । अर्धमागधी के समग्र लक्षणों को समझने के लिए आचार्य हेमचन्द्र से पूर्ववर्ती साहित्य काफी सहयोगी हो सकता है। सम्भवतया चूर्णियों और वृत्तियों में उसके कुछ रूप जो बच गए हैं वह भी उस पूर्ववर्ती
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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