SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 जिन-प्रतिमाओं की स्थापना का आधार • डॉ. संगीता सिंह जैन धर्म की गणना भारत के प्राचीनतम धर्मों में की गई है। जैन परम्परा के अनुसार यह धर्म शाश्वत है और चौबीस तीर्थकरों द्वारा अपने-अपने युग में प्रतिपादित होता रहा है। सम्पूर्ण जगत में धर्म का मौलिक स्वरूप एक ही है। संसार में ऐसे अनेक धार्मिक महापुरूषों ने मानव-जाति के कल्याण हेतु अपने विवेकानुसार पृथक-पृथक मत प्रारंभ किये हैं। जैन धर्म भी उनमें से एक है। यह उनमें व्यापक प्रभाव-क्षेत्र वाला धर्म है। ज्ञातव्य हो कि तीर्थकर के अन्तराल की जैन परम्परानुसार जो अवधि निर्दिष्ट है वह प्रायः अविश्वसनीय प्रतीत होती है। परन्तु यह धर्म नितान्त प्राचीनता की ओर ध्यान आकर्षित करता है। जैन धर्म की प्राचीनता के साथ-साथ तीर्थकर प्रतिमाओं का निर्माण भी प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है। जिन-प्रतिमाओं की स्थापना के लिए क्या-क्या नियम निर्दिष्ट हैं? जैन धर्म में जिन प्रतिमाओं को कब और कैसे स्थापित करने की परम्परा प्रारंभ हुई ? यह इस शोध-पत्र लिखने का उद्देश्य है। जिन-मूर्तियों की स्थापना के आधार के विषय में एक श्लोक में इस प्रकार उल्लिखित किया गया है “विमोक्षसुख चैत्यदानपरिपूजनाद्यात्मिकाः, क्रिया बहु विधासुभृन्मरण पीडन हेतवः। त्वया ज्वलित केवलेननहीं देशिताः किन्तुताः स्तवपि प्रसृतिभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः।। अर्थात् ‘विमोक्ष सुख के लिए चैत्यालयादि का निर्माण, दान का देना, पूजन करना इत्यादि अथवा इन्हें लक्ष्य करके जितनी क्रियाएं की जाती हैं और जो अनेक प्रकार से त्रस-स्थावर जीवो के मरण तथा पीड़न की करणीभूत हैं, उन सब क्रियाओं का, हे केवली भगवान! आपने उपदेश नहीं दिया, किन्तु आपके भक्तजन श्रावकों ने भक्ति से प्रेरित होकर उनका
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy