SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 67/4 अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 भाषा एवं आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है । वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी । इस लिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्य प्राप्त हुआ। प्राकृत भाषा के इस जनाकर्ष के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया। अभिज्ञानशाकुन्तलम् की ऋषिकन्या शकुन्तला, नाटककार भास की राजकुमारी वासवदत्ता, शूद्रक की नगरवधू वसन्तसेना तथा प्रायः सभी नाटकों के राजा के मित्र, कर्मचारी आदि पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जन समुदाय की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। अथर्ववेद में जन भाषा के अनेक रूप प्राप्त होते हैं। महाभारत, रामायण आदि काव्यों के बाद प्राकृत एवं पाली भाषा जो अध्यात्म और साहित्य में प्रयुक्त हुई । जिसके केन्द्र बिन्दु आगम, त्रिपिटक एवं प्राकृत शिलालेख आदि हैं। अतः वैदिक युग से महावीर एवं बुद्ध पर्यन्त प्राकृत भाषा का विकास हुआ। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति : 87 प्राक्+कृत् पद से प्राकृत है। प्राक् +कृत् शब्द का अर्थ पूर्वकृत् लोगों के व्याकरण आदि संस्कार रहित सहज स्वाभाविक वचन व्यवहार प्रकृति है, इससे उत्पन्न जो है वह प्राकृत है। जो भाषा प्रकृति से, स्वभाव से, स्वयं ही सिद्ध है, उसे प्राकृत कहते हैं।" प्राकृत के भाषा प्रयोग एवं काल दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं १. आदि युग २. मध्य युग ३. अपभ्रंश युग आदि युग : प्राकृत भाषा जन भाषा थी। इस प्राकृत के प्रमुख पांच रूप प्राप्त होते हैं। आर्ष प्राकृत शिलालेखी प्राकृत निया प्राकृत धम्मपद की प्राकृत अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत' १. आर्ष प्राकृत आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत को ऋषि भाषित कहा है। भगवान् महावीर और बुद्ध के पश्चात् आर्ष पुरुषों, महापुरुषों और ऋषिगणों की जो भाषा थी, वह भाषा आर्ष भाषा है। महावीर और बुद्ध के वचनों को आर्ष वचन भी कहा जाता है क्योंकि उनके द्वारा जन भाषा का आश्रय लेकर लोक कल्याण के लिए उपदेश दिये गये। जिसके अर्थ को उनके शिष्यों के द्वारा सूत्रबद्ध किया गया। आचार्यो, महापुरूषों और काव्य साहित्य में प्रवीण जनों
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy