SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 77 केवलज्ञान तो प्रत्यक्ष प्रमाण तथा श्रुतज्ञान द्रव्यश्रुत के रूप में आगम प्रमाण माना गया है। यह स्याद्वादनय से संस्कृत होता है अर्थात् द्रव्यश्रुत को समझने के लिये स्याद्वाद की विवेचना करना स्तोत्रकार को अभीष्ट हुई। ग्रन्थकार ने स्याद्वाद की महत्ता का द्योतन करने के लिये ही स्याद्वाद और सर्वतत्त्व का प्रकाशन करने वाले केवल ज्ञान को प्रमाण की दृष्टि से पूर्ण प्रामाणिक कहा है। और दोनों में केवल साक्षात् (प्रत्यक्ष) और असाक्षात् (परोक्ष) का ही भेद बताया है तथा यह भी कह दिया है कि जो इन दोनों में किसी का भी विषय नहीं है, उसे अवस्तु ही समझना चाहिये। समानधर्मा सपक्ष से साध्य का साधर्म्य होने से विवक्षित साध्य की सिद्धि के लिये वस्तु के किसी धर्म या अर्थ को स्याद्वाद से विभाजित करके प्ररूपित करने वाले अभिव्यञ्जक हेतु या अभिप्राय को हम नय कहते हैं। नयों उपनयों द्वारा त्रिकाल संबन्धी अनेक धर्मों का समुच्चय जहाँ हैं वहाँ उन धर्मों से अविभ्राड् सम्बन्ध (तादात्म्य सम्बन्ध) वाला द्रव्य एक भी है और अनेक भी कहा जा सकता है। नयों, उपनयों के विषय भूत एकान्त रूप धर्म वस्तुगत अर्थात् द्रव्य के अंश ही माने गये हैं। प्रत्येक एकान्त मिथ्या नहीं होता है किन्तु वस्तु निरपेक्ष एकान्त मिथ्या होता है। मिथ्या एकान्तों का समूह तो मिथ्या वस्तु ही है और मिथ्यैकान्तता हम नयवादियों या स्याद्वादियों की नहीं है। वस्तु सापेक्ष एकान्त ही सम्यक् एकान्त है और उनके समूह रूप वस्तु को ही स्याद्वादियों ने स्वीकार किया है तथा उसे सही अर्थक्रियाकारी माना है। स्याद्वाद में अनेकान्तात्मक अर्थ या वस्तु का नियमन विधिनिषेध वाक्यों से किया जाता है। इसलिये पदार्थ को विधि (तथात्व) और निषेध (अन्यथात्व) रूप में अवश्य जानना चाहिये अन्यथा वस्तुओं का अपना कोई विशेषत्व नहीं रहेगा और सारी वस्तुयें एक या एकरूप हो जायेंगी। इसलिये यह स्याद्वाद वाणी तदतद् स्वरूप वाली वस्तु को विधि निषेध वाक्यों से प्ररूपित करने वाली है। किन्तु मृषा वाक्यों से वस्तु तत् स्वरूप या अतत् स्वरूप वाली ही है, ऐसा प्ररूपण करने वाली वाणी सत्य नहीं मानी जा सकती है। मिथ्या वाक् या असत्त्यार्थ वचनों से तत्त्वार्थ की
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy