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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 कर्म की पर्याय में परिवर्तन का उपादान कारण तुम्हारा ज्ञानावरणीय कर्म है और निमित्त कारण तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया है। तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया तुम्हारे ज्ञानावणीय कर्म के फलन के द्वारा तुम्हारी आत्मा के ज्ञान को परोक्ष रूप में प्रभावित करती है।
कर्म का फलना न केवल कर्म पर निर्भर करता है, बल्कि कर्म के फलन के निमित्त कारण पर भी। कर्म के फलन के निमित्त कारण के बदलने के साथ कर्मफल भी बदलता है, जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण के साथ समझाया गया है। मान लो कि तुम कंप्यूटर की कक्षा में वार्ता सुनने की क्रिया के बजाय एक अध्यात्मिक पुस्तक पढ़ने की क्रिया करते हो। पुस्तक पढ़ने की क्रिया से तुम्हारे ज्ञान में बदलाव आता है, परन्तु तुम्हारे ज्ञान में बदलाव कंप्यूटर की कक्षा में वार्ता सुनने की क्रिया से भिन्न है। कक्षा में जाने या पुस्तक पढ़ने से पहल की दोनों परिस्थितियों में तुम्हारी आत्मा की पूर्व-पर्याय
और ज्ञानावरणीय कर्म की पूर्व-पर्याय समान है, फिर भी तुम अपने ज्ञान में भिन्न बदलाव अनुभव करते हो। जब तुम कंप्यूटर की कक्षा में वार्ता के बजाय पुस्तक पढ़ते हो, तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फल भिन्न है। ज्ञानावरणीय कर्म के फलन का निमित्त कारण दोनों परिस्थितियों में भिन्न है। निमित्त कारण एक परिस्थिति में कंप्यूटर पर वार्ता सुनने की क्रिया है और दसरी परिस्थिति में अध्यात्मिक पुस्तक पढ़ने की क्रिया। तुम्हारी आत्मा की उत्तर पर्याय दो परिस्थितियों में एक दूसरे से भिन्न है। इस भिन्नता का कारण निमित्त कारण में भिन्नता है।
प्रत्येक क्रिया के साथ न केवल आत्मा और भौतिक शरीर की पर्याय में परिवर्तन होता है, कार्मण शरीर की पर्याय में भी परिवर्तन होता है। प्रत्येक क्रिया के साथ कार्मण शरीर से हर क्षण उदय में आए पूर्व कर्म अलग होते रहते हैं और नवीन कर्म जुड़ते रहते हैं। जीव क्रिया और कार्मण शरीर की पूर्व-पर्याय द्वारा कार्मण शरीर की उत्तर-पर्याय निर्धारित होती है। कार्मण शरीर की उत्तर-पर्याय का उपादान कारण कार्मण शरीर की पूर्व-पर्याय है और निमित्त कारण जीव की क्रिया है। क्रिया का साधन -
इस तथ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यद्यपि कर्म यूनिवर्सल होते हैं, कर्मफल नहीं। कर्मफल कर्म के अतिरिक्त क्रिया की प्रकृति पर भी