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________________ 46 अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 कर्मसिद्धांत -नये परिप्रेक्ष्य में - डॉ. सुभाष चन्द्र जैन कर्म सिद्धान्त की चर्चा में कर्म शब्द का उपयोग दो विभिन्न प्रसंग में किया जाता है। प्राणी कर्म करते हैं और कर्म बांधते भी हैं। 'करने वाले और 'बंधने' वाले कर्मों के अर्थ में अंतर हैं। दोनों तरह के कर्म, यानी करने वाले और 'बंधने' वाले कर्म, फल देते हैं। दोनों तरह के कर्मों के फल को कर्मफल कहा जाता है। मिसाल के तौर पर, एक व्यक्ति चोरी करने के अपराध में दो वर्ष का कारागार का दंड पाता है। यह सामान्य मान्यता है कि कारागार का दंड उस व्यक्ति के कर्म का फल है। परन्तु यह फल कौन से कर्म का फल है। यदि यह माना जाए कि यह फल चोरी करने वाले कर्म का फल है, तो प्रश्न उठता है कि क्या इस प्रकार के फल कर्म सिद्धान्त द्वारा नियंत्रित होते हैं? यदि नहीं, तो करने वाले कर्म के किसी प्रकार के फल कर्म सिद्धान्त द्वारा नियंत्रित होते हैं? यदि यह माना जाए कि यह फल पूर्वकृत 'बंधे' कर्म का फल है, तो प्रश्न उठता है कि पूर्वकृत ‘बंधे' कर्म किस प्रकार के फल प्रदान करते चर्चा की सुविधा के लिए इस लेख में करने वाले कर्म और 'बंधने' वाले कर्म के लिए भिन्न शब्द उपयोग किये गये हैं। ‘करने वाले कर्म को क्रिया शब्द से, ‘बंधने' वाले कर्म को कर्म शब्द से, ‘करने वाले कर्म के फल को क्रियाफल शब्द से, और 'बंधने' वाले कर्म के फल को कर्मफल शब्द से संबोधित किया गया है। हम हर क्षण, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, क्रिया करते रहते हैं जिसके कारण हम अपने कार्मण शरीर से नवीन कर्म बांधते रहते हैं और पूर्व कर्म काटते रहते हैं। क्रिया करना, नवीन कर्मों का बंध होना और पूर्व कर्मों का फलना, ये तीनों प्रक्रिया सदैव साथ-साथ होती रहती है। उदाहरणार्थ, तुम इस समय इस लेख को पढ़ने की क्रिया कर रहे हो और इस क्रिया के कारण नवीन कर्म बांध रहे हो और पूर्व कर्म भोग रहे हो। क्रिया के बिना नवीन कर्मों का बंध और पूर्व कर्मों का फलना संभव नहीं है। सदैव
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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