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________________ 21 अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 यहां भी अभीष्ट तत्त्व की व्यवस्था नहीं बन सकती। वस्तुतः वस्तु का वस्तुत्व, अपने स्वरूप का उपादान और परकीय रूप का परित्याग इस व्यवस्था से आपादन करने योग्य है। इसलिए सहानेकान्त अवश्य स्वीकार करना चाहिए क्योंकि एक शुद्ध ज्ञान में प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों आकार विद्यमान हैं। गुणवद् द्रव्यम् कहने का प्रयोजन यही सिद्ध करता है।९ ‘क्रमवर्तिनः पर्यायाः' पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं। प्रत्येक गुण की एक समय में एक पर्याय होती है। इस तरह से अनन्तानन्त पर्यायें क्रम से होती रहती हैं। सूत्रकार ने इसलिए पर्ययवद् द्रव्यम् कहा है। क्रम अनेकान्त और अक्रम अनेकान्त का निराकरण करने वाले बौद्ध, सांख्य, ब्रह्माद्वैतवादियों आदि का निराकरण ‘गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' से हो जाता है। आचार्य विद्यानंद ने तीन प्रकार के एकान्तवादियों के प्रति तीन सूत्रों का समुदाय समझाकर न्यायिक व्यवस्था दी है - १. द्रव्यम् (पक्ष) गुणवत् (साध्य) द्रव्यत्वान्यथानुपपत्तेः (हेतु) २. द्रव्यम् (पक्ष) पर्ययवत् (साध्य) द्रव्यत्वान्यथानुपपत्तेः (हेतु) ३. द्रव्यम् (पक्ष) गुणपर्ययवदत् (साध्य) द्रव्यत्वान्यथानुपपत्तेः (हेतु) गुण और पर्याय में अन्तर : गुण अन्वयी होते हैं और पर्याय व्यतिरेकी। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को गुण कहते हैं और द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। इन दोनों से युक्त द्रव्य होता है तथा वह अयुतसिद्ध और नित्य होता है। द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः३२ अर्थात् जो द्रव्य के आश्रित हों, गुण रहित हों, वे गुण हैं। वस्तुतः गुणों के द्वारा ही द्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि भेदक गुण न हों तो द्रव्यों में सांकर्य उत्पन्न हो जाये। जो निरन्तर द्रव्य में रहते हैं और गुण रहित हैं, वे गुण हैं। यह स्पष्ट होते हुए भी कि द्रव्य आधार है और गुण आधेय, पर गुण द्रव्य से कथंचित् अभिन्न है। गुण का दूसरा नाम विशेष भी है, जो स्वयं विशेष रहित हों, वे गुण हैं। जैस द्रव्य में गुण पाये जाते हैं, गुण में अन्य गुण नहीं रहते। गुण पर्यायों में भी पाये जाते हैं क्योंकि वे भी द्रव्य के आश्रय से रहते हैं। इसलिये पर्यायें भी विशेष रहित होती हैं। परन्तु गुण का लक्षण पर्यायों में नहीं जाता क्योंकि पर्यायें कदाचित्क होती हैं। सूत्रकार ने लिखा है कि 'तद्भावः परिणामः द्रव्य का जो परिणमन होता है, वह परिणाम पर्याय है। पर्याय व्यतिरेकी होते हए भी वह
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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