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अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
जीवन की सार्थकता
आत्मा इस संसार में, तड़पे यों दिन-रैन। जल बिन तड़पे मीन ज्यों, जल में भी बेचैन।।१।।
अष्टापद, जलचर, मकर, अनगिन बैरी और। धर्म बिना भव सिंधु में, मिले न सुख का ठौर।।२।।
पीछे खाई में गिरें, आगे गहरा कूप। जन्म-मरण का बंध है, कर्मो के अनुरूप।।३।। त्याग बिना जीवन नहीं, ज्ञान बिना न उपाय। धर्म बिना संसार में, जून अकारथ जाय।।४।।
कितने बैरी जान के, जीवन है बेहाल। काम-क्रोध-मद-लोभ या, मोह फंसाये जाल।।५।।
आगा-पीछा सोच लो, जग की चाह अथाह। नश्वर-तन की मुक्ति हित, पकड़ धर्म की राह।।६।।
बचपन खोया खेल में, यौवन विषयों हेत। ढले बुढापा खाँसते, चेत सके तो चेत।।७।।
तीर्थकर भगवान का, मन में करके ध्यान। जिनराजों की राहचल, जडमति होय सुजान।।८।।
पूज्य शिखरजी तीर्थ पर, बहे धर्म की व्यार। जिनवाणी के मनन से, हो भवसागर पार।।९।।
- सुभाष जैन (शकुन प्रकाशन)
नई दिल्ली