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________________ 82 अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 भगवान महावीर के समान थे, प्रकाण्ड दार्शनिक, गम्भीर चिंतक, स्तुति काव्य के सूत्रपात, तर्क कुशल मनीषी, वादी, वाग्मी, कवि, गमक, कवि वेधा, कवीन्द्र भास्करण, कविकुन्जर, मुनिवन्ध, जनानन्द आदि अनेक विभूषणों से युक्त संस्कृत, प्राकृत एवं विभिन्न भाषाओं के पारंगत विद्वान थे। पद्मावती देवी की दिव्य शक्ति के द्वारा उन्हें विशेष शक्ति प्राप्त हुई थी। आचार्य परम्परा में भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्त, इनके वंशज पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द), इनके बंशज गृद्धपिच्छाचार्य, इनके शिष्य बलाक पिच्छाचार्य व उनके वंशज आ० समन्तभद्र स्वामी थे। उनके दो शिष्यों आ० शिवकोटि व शिवायन का उल्लेख मिलता है। आचार्य समन्तभद्र की निम्न रचनायें मानी जाती हैं - १. वृहद् स्वयंभू स्तोत्र, २. स्तुतिविद्या-जिनशतक, ३. देवागम स्तोत्र आप्तमीमांसा, ४. युक्त्यानुशासन, ५. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ६. जीवसिद्धि, ७. प्रमाण पदार्थ, ८. तत्वानुशासन, ९. प्राकृत व्याकरण, १०. कर्मप्राभृत टीका, ११. गन्धहस्ति महाभाष्य-तत्वार्थसूत्र की टीका। वृहत् स्वयंभू स्तोत्र में भगवान मल्लिनाथ की स्तुति करते हुये आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने उनके तीर्थ को जन्म-मरण रूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये तरण पथ-पार होने का उपाय बताया है। तीर्थमपिस्वं जननसमुदत्रासितसत्वोतरणपथोऽगम॥१०९।। तीर्थ शब्द 'तृ' धातु से निष्पन्न हुआ है। इस शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरण की दृष्टि से देखें तो ‘तीर्यन्ते अनेन वा' तृप्लवन्तरणयो' पातृतुदि इति थक।अर्थात् तृ धातु के साथ थक प्रत्यय लगकर तीर्थ शब्द की निष्पत्ति होती है, इसका अर्थ है जिसके द्वारा अथवा जिसके आधार से तरा जाय, उसे तीर्थ कहते हैं। आचार्य जिनसेन स्वामी आदिपुराण में लिखते हैं - संसारब्धे पारस्य तरणेतीर्थमिष्यते। चेरितं जिननाथानां तरयोक्तितीर्थसंकथा। यहाँ जिनेन्द्र भगवान के चरित्र को तीर्थ कहा है। जिन भगवान का चरित्र प्राणीमात्र के लिये तारने वाला है, सभी के लिये शरणागत है, अतः उसे
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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