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________________ अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 63 कहने के समय वस्तु कथञ्चित् सत् कहलाती है और असत्त्व को कहने के समय कथञ्चित् असत्। किन्तु यदि सत्त्व असत्त्व दोनों को क्रम से कहने के समय वस्तु को कथञ्चित् उभयरूप या द्वैतस्वरूप (सत्-असदात्मक) कहा जाता है। इन दोनों धर्मों (सत्त्व-असत्त्व) का क्रम से कथन करना तो संभव होने पर भी एक साथ (युगपत्) कथन करना अशक्य होने से वस्तु अवक्तव्य या अवाच्य कहलाती है। यहाँ तक सत्-असत् धर्मयुगल की अपेक्षा वस्तु को समझाने के लिये भंग कहे - (१) वस्तु कथञ्चित् सत्त्व रूप है। (२) वस्तु कथञ्चित् असत्त्व रूप है। (३) वस्तु कथञ्चित् सदसदात्मक उभयरूप है। और (४) वस्तु कथंचित् अवक्तव्य है। इनकी प्रतिपत्ति कराके समन्तभद्र ने शेष तीनभंग अभी शेष हैं जिन्हें अपने-अपने हेतु से समझ लेना चाहिये। इसका मतलब स्पष्ट है कि किसी एक धर्मयुगल की मुख्यता से वस्तु को सात भंगों के बिना निर्द्वन्द समझना या कहना संभव नहीं है। इस प्रकार सात भंगों से वस्तु को समझने समझााने रूप सप्तभंगी न्याय की प्रतिष्ठा समन्तभद्र के समय तक हो चुकी थी। जैन परम्परा में सदसत् रूप परस्पर विरोधी धर्म युगल प्रत्येक वस्तु में है, यह कैसे संभव है ? इसे स्पष्ट करने हेतु समन्तभद्र कहते हैं - "अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि। विशेषणत्वत् साधर्म्य यथा भेदविवक्षया।। नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि। विशेषणत्वाद्वैधर्म्य यथाऽभेदविवक्षया।।"२१ प्रत्येक धर्मी में अस्तित्व अपने प्रतिषेध्य (नास्तित्व) के साथ अविनाभावी है। नास्तिक अस्तित्व के होने पर ही प्रतिषेध्य रूप हो सकता है। बिना अस्तित्त्व के नास्तित्व नहीं होता है। अतः अस्तित्व और नास्तित्व वस्तु में वैसे ही विशेषण हैं जैसे हेतु में साधर्म्य और वैधर्म्य होते हैं। प्रत्येक धर्मी में अस्तित्व नास्तित्व का अभिनाभावी है क्योंकि वह विशेषण है वह अपने धर्मों में प्रतिषेध्य धर्म का अविनाभावी होता है जैसे हेतु में साधर्म्य भेदविवक्षा से वैधर्म्य के साथ अविनाभावी है। यहाँ साधर्म्य अन्वय को तथा वैधर्म्य व्यतिरेक
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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