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________________ 46 अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 करण का अर्थ है परिणाम - करणाः परिणामाः। जीव के शुभ-अशुभ परिणाम करण है। अधःकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण तीनों की विशिष्ट निर्जरा के साधन विशुद्ध परिणाम है। (अ) अधःकरण - प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिगत होता है। इस करण में नीचे के समय के परिणामों की संख्या और विशुद्धता ऊपर के समयवर्ती किसी दूसरे जीव के परिणामों से समानता लिये होती है। इसलिए इसे अधःप्रवृत्त करण भी कहते हैं। १. सातादिप्रशस्त प्रकृतियों का प्रतिसमय अनन्तगुणा चतुःस्थानीय अनुभाग बंध गुड, खाण्ड, शर्करा, अमृत के समान चार प्रकार का अनुभाग बन्ध। २. स्थिति बन्ध का अपसरण होता है। ३. असातावेदनीय अप्रशस्त प्रकृतियों का प्रतिसमय अनन्तगुण घटता हुआ द्विस्थानीय अनुभागबन्ध। प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिगत होता है। इस करण में ऊपर के समय में वर्तमान जीव के परिणाम जैसी विशुद्धता वैसी ही विशुद्धता लिए हुए परिणाम नीचे के समय में वर्तमान जीव के भी होते हैं वह अधःप्रवृत्त करण है। (ब) अपूर्वकरण - अ (नहीं) + पूर्व (पहले) = जो पूर्व में नहीं थे। करण = परिणाम अर्थात् आज तक जो परिणाम नहीं थे ऐसे अत्यन्त नवीन परिणाम। (१) गुण श्रेणी निर्जरा (२) गुण संक्रमण (३) स्थिति खण्डन (४) अनुभाग खण्डन (१) गुणश्रेणी निर्जरा :- गुणित रूप से उत्तरोत्तर समयों में कर्म परमाणुओं का झरना। (२) गुण संग्रहण :- प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृति रूप परिणमे। (३) स्थिति खण्डन :- पहले बंधी हुई उन सत्ता में रहने वाली कर्म
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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