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________________ 13 अनेकान्त 671, जनवरी-मार्च 2014 यत्र लोक्यन्ते स लोक इति। स यत्र तल्लोकाकाशम्। ततो बहिः सर्वतोऽनन्तालोकाकाशम्।'६० अर्थात् जहाँ पर धर्म आदि द्रव्य देखे जाते हैं वह लोक है, वह लोक जहाँ है वह लोकाकाश है। उससे बाहर सर्वत्र अनन्त अलोकाकाश है। अलोकाकाश में आकाश को छोड़कर अन्य कोई द्रव्य नही है। यदि लोक से बाहर अलोकाकाश में भी कुछ द्रव्यों का अवगाह माना जायेगा तो उसे लोकपने का ही प्रसंग हो जायेगा। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने कहा है - 'लोकाकाशेऽवगाहः स्यात्सर्वेषामवगाहिनाम्। बाह्यतोऽसंभवात्तस्माल्लोकत्वस्यानुषंगतः।। लोकाकाशस्य नान्यस्मिन्नवगाहः क्वचिन्मतः। आकाशस्य विभुत्वेन स्वप्रतिष्ठत्वसिद्धितः।। स्पष्ट है कि आकाश विभु होने से स्वप्रतिष्ठित है, अन्य द्रव्यों का उस आकाश में अवगाह है। तत्त्वार्थवार्तिक में कहा गया है कि यदि आकाश से अधिक प्रमाण वाला कोई द्रव्य होता तो वह आकाश का आधार हो सकता था। ऐसा नहीं है अतः आकाश का कोई आधार नहीं है, वह स्वप्रतिष्ठित है। (५) काल द्रव्य : तत्त्वार्थसूत्र के पञ्चम अध्याय के प्रथम सूत्र में 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' कहकर धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इन चार अस्तिकाय अजीव द्रव्यों का उल्लेख किया गया था। इन चारों के अतिरिक्त काल नामक एक अनस्तिकाय अजीव द्रव्य भी है, जिसका उल्लेख आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कालश्च' सूत्र द्वारा किया है। इसके पूर्व द्रव्यों के कार्य/उपकार के प्रसंग में काल द्रव्य के कार्यो/उपकारों का कथन भी तत्त्वार्थसूत्र में आया है। श्वेताम्बर जैन परम्परा में कतिपय आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते हैं, किन्तु उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य रूप द्रव्य का लक्षण घटित होने के कारण अधिकांश श्वेताम्बर जैन परम्परा तथा सम्पूर्ण दिगम्बर जैन परम्परा काल को द्रव्य स्वीकार करती है। काल में ध्रौव्य तो स्वप्रत्यय है ही, उत्पाद-व्यय पर द्रव्यों में वर्तना का कारण होने से पर प्रत्यय तथा अगुरुलघु गुण की हानि-वृद्धि की अपेक्षा काल में उत्पाद व्यय स्वप्रत्यय भी है। अतः काल द्रव्य
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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