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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
रचना शैली अजन्ता से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। शैली और रचना पद्धति की दृष्टि से बाघ के चित्र उत्कृष्ट हैं और भावधारा में महान है।
बादामी शिलागृही मन्दिर वास्तु, शिल्पकला एवं चित्रकला की बेजोड़ संगम स्थली हैं जो चालुक्य वंशीय राजाओं की अनन्य कला रूचि पर प्रकाश डालते हैं।
सित्तन्नवासल की कलाकृतियों का निर्माण पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन तथा उनके उत्तराधिकारी पुत्र नरसिंह वर्मन द्वारा हुआ । यहाँ पल्लव कला की श्रेष्ठ कृतियाँ पायी जाती हैं, जिनमें अजन्ता की परिपक्व शैली के दर्शन होते
हैं।
एलोरा में कुल ३३ शैलगृही मन्दिर हैं। इनमें से प्रारम्भिक १२ गुहा मन्दिर बौद्ध, उसके बाद १६ गुहा मन्दिर ब्राह्मण और अन्त के पांच गुहा मन्दिर जैन धर्मावलम्बियों के हैं । बौद्ध गुहाओं का निर्माण ५५० ईसवी से ७५० ईसवी तक, ब्राह्मण गुहाओं का निर्माण ६५० ईसवी से ७५० ईसवी तक और जैन गुहाओं का निर्माण ७५० से १०वीं शताब्दी का माना जाता है। ये गुहा मन्दिर भारत की प्राचीनतम धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक सहिष्णुता और सह अस्तित्व के द्योतक हैं।
लघुचित्रण :
जैन धर्म की अनेक सचित्र पोथियाँ ११०० ईसवी से १५०० ईसवी के मध्य विशेष रूप से लिखी गई हैं। इस प्रकार की चित्रित पोथियों से भविष्य की कला शैली की एक आधार शिला तैयार होने लगी थी । इस कारण इस कलाधारा का ऐतिहासिक महत्व है । इस शैली के नाम के सम्बन्ध में अनेक विवाद हैं। इस शैली को जैन शैली, गुजरात शैली, पश्चिमी भारत शैली तथा अपभ्रंश शैली के नामों से पुकारा गया है।
इस कालखण्ड में पश्चिमी भारत में जिन सचित्र ग्रन्थों को तैयार किया गया उनका विषय यद्यपि जैनेतर भी था, परन्तु मुख्य विषय जैन धर्म था । इसलिये पर्सीब्राउन तथा अन्य लेखकों ने इसे जैनशैली के नाम से सम्बोधित किया है। इन चित्रों को यह नाम इसलिये भी प्रदान किया गया कि, यह विश्वास किया जाता रहा है कि ये चित्र जैन साधुओं के द्वारा बनाये गये हैं ।