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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
अर्थात् जो एक (आत्मा) को जानता है, वह सब (जगत्) को जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है। इस प्रकार समणसुत्तं में ज्ञान का महत्व प्रतिपादित किया गया है। आगे ज्ञान के भेदों की चर्चा करते हुए ज्ञान की सूक्ष्म विवेचना प्रस्तुत है
ज्ञान के भेद - आत्मा में अनन्तगुण हैं, किन्तु इन अनन्त गुणों में एक "ज्ञान" गुण ही ऐसा है, जो "स्व पर" प्रकाशक है। जैसे दीपक अपने को भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। उसी प्रकार ज्ञान अपने को भी जानता है और अन्य पदार्थो को भी जानता है। यदि ज्ञानगुण न हो तो वस्तु को जानने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसीलिए ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है- “णाणं पयासयं"। आत्मा का गुण तो ज्ञान है ही, किन्तु वह सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी होता है। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को मिथ्याज्ञान कहते हैं। इसीलिए समणसुत्तं में कहा है
संसयविमोह-विब्भय विवज्जियं अप्पपरसरूवस्स।
गहणं सम्मं णाणं सायारमणेयभेयं तु॥६७४।। अर्थात् संशय, विमोह (विपर्यय) और विभ्रम (अनध्यवसाय) - इन तीन मिथ्याज्ञानों से रहित अपने और पर के स्वरूप का ग्रहण करना सम्यग्ज्ञान है। यह सम्यग्ज्ञान वस्तुस्वरूप का यथार्थ निश्चय कराता है, अतएव इसे साकार अर्थात् सविकल्पक (निश्चयात्मक) कहा गया है। इसके अनेक भेद हैं। जैसा कि इस लेख के प्रारम्भ में ही ज्ञान के पाँच भेद बतलाये गये हैं। समणसुत्तं में भी कहा है
तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं।
ओहिनाणं तु तइयं मणनाणं च केवलं॥६७५॥ अर्थात् वह ज्ञान पाँच प्रकार का है - १. आभिनिबोधिक (मतिज्ञान), २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान, ४. मनःपर्ययज्ञान और ५. केवलज्ञान।
इन पाँच ज्ञानों में आरम्भ के चार ज्ञान क्षायोपशमिक होने के कारण अपूर्ण हैं। पंचम केवलज्ञान संपूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने के कारण परिपूर्ण है। इन्हीं पांच ज्ञानों का प्रत्यक्ष
और परोक्ष - इन दो प्रमाणों के रूप में विभाजन किया गया है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान - ये परोक्ष हैं। क्योंकि ये इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं। शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। इनमें भी अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये दो देश प्रत्यक्ष हैं तथा एकमात्र केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।
समणसुत्तं में गाथा संख्या ६७७ से ६८४ तक आठ गाथाओं में ज्ञान के इन पाँच भेदों का स्वरूप विवेचन किया गया है। अतः क्रमशः प्रस्तुत है - १. मतिज्ञान - सामान्यतः “तदिन्द्रियाऽनिंद्रिय निमित्तम्" (तत्त्वार्थसूत्र अध्याय.१.) अर्थात्
इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान पदार्थों को जानता है, वह मतिज्ञान है। दर्शनपूर्वक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के क्रम से मतिज्ञान होता है। समणसुत्तं में इसे आभिनिबोधिक नाम से कहा गया है। कहा भी है -