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अनेकान्त 66/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2013
हैं। प्रबन्धन की दृष्टि से न तो जन्म हमारे हाथ में है और न मृत्यु ही हमारे हाथ में है। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है
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लाइ हयात आ गये, कजा ले चली चले चले।
न अपनी सुशी आए, न अपनी सुशी गये ।।
जन्म और मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है, वे कब और किस निमित्त से कहाँ हो और कैसे हो? इसकी कोई व्यवस्था भी सम्भव नहीं है। फिर भी जन्म और मृत्यु के दो छोरों के बीच जीवनधारा सम्यक् रूप से बहती रहती है। यह जीवन धारा का बहना ही मनुष्य के अधिकार क्षेत्र में है कि वह जीवन को कैसे जीता है।इस जीवनधारा का सम्यक् नियोजन ही जीवन प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो समय प्रबन्धन के माध्यम से ही संभव हो सकता है।
यह सही है कि न तो भूतकाल हमारे अधिकार क्षेत्र में होता है और न भविष्य ही । जीवन तो हमेशा वर्तमान में ही जिया जाता है। इसलिए भारतीय चिंतकों की यह मान्यता रही है कि समय का प्रबन्धन केवल और केवल मात्र वर्तमान में ही संभव है। सदैव वर्तमान के क्रिया-कलापों को सार्थक बनाने का प्रयत्न ही सम्यक् जीवन-प्रबन्धन कहा जा सकता है। भूत गुजर चुका है वह अब हमारे हाथ में नहीं है, भविष्य कैसा होगा ? यह भी पूर्णतया हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं है । भूतकाल का रोना रोना और भविष्य के सुनहले सपने संजोना यह मनुष्य के लिए उचित नहीं है। उसका सारा प्रयत्न और पुरुषार्थ इसी में है कि उसे जो अवसर उपलब्ध हुआ है उसका सम्यक् ढंग से उपयोग करे, यही समय-प्रबन्धन है ।
मनुष्य जो भी करता है, वह सब उसके मन, वाणी और शरीर के माध्यम से ही संभव होता है। हमारा समग्र आचार और व्यवहार शरीर के माध्यम से ही संभव होता है । अतः शरीर को सुनियोजित ढंग से सही दिशा में नियोजित करना ही शरीर प्रबन्धन है । इसमें दो तत्त्व प्रमुख होते हैं, एक स्वास्थ्य और दूसरा शारीरिक अंगों का संरक्षण । इन्हें हम पोषण और सुरक्षा के प्रयत्न कह सकते हैं। शरीर का पोषण आवश्यक है, क्योंकि यदि शरीर और उसके अंगों का सम्यक् ढंग से पोषण नहीं होगा, तो शरीर अस्वस्थ हो जाएगा और अस्वस्थ शरीर के