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अनेकान्त 66/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2013
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और जब साधक शुद्धोपयोग में रमण करने का प्रयास करता है तब वह स्व-पर का भेद विज्ञान तो करता ही करता है। इसका चित्रण देशनाकार करते हैं
“स्वयं ने, स्वयं को, स्वयं से, स्वयं के लिए, स्वयं में, जो जाना वह है स्वयं के लिए। पर ने, पर को, पर से, पर के लिए, पर में जो जाना, पर से भिन्न जाना, पर के ही लिए ।" (भूमिका, पृ. ६)
निश्चय की सर्वोच्च दृष्टि के साथ साथ देशनाकार व्यवहारिक दृष्टि का भी पूरा ध्यान रखते हैं क्योंकि ये दोनों आवश्यक है । बन्धन की दृष्टि से यद्यपि पाप और पुण्य दोनों एक जैसे ही हैं किन्तु पुण्य के योगदान का भी कम महत्त्व नहीं है क्योंकि वह पाप से बचाता है। एक मार्मिक उद्घोष आचार्य श्री ने सर्वोदयी देशना की भूमिका में ही किया है
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“अहो ज्ञानियों! तुमने महान पुण्य किया था, जिसके कारण एक साथ जिनेन्द्र देव की वाणी सुन रहे हो। ऐसे खोटे काल में लोग टी. वी. खोले बैठे होंगे और खोटे काल में कोई झगड़ा कर रहा होगा, तो कोई पापी मदिरा पी रहा होगा, कोई गाली दे रहा होगा। भैया ! यह प्रबल पुण्य का योग है कि वाणी सबके पास है, पर जिस वाणी से जिनवाणी निकले वह अहोभाग्य है । ये पुण्य के नियोग हैं।” (भूमिका, पृ. ६)
इस कलिकाल में भी विशुद्ध जिनवाणी सुनने को जिनभक्तों की अपार भीड़ लगी हो तो यह सबसे बड़ा चमत्कार मैं मानता हूँ। हजारों की भीड़ हो और शांति ऐसी हो मानो कोई समवशरण लगा हो तो यह कोई चमत्कार से कम नहीं। इसकी चर्चा भी देशनाकार ने की है
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“पूरे पाण्डाल के भरे होने पर भी आवाज नहीं आती है। क्यों नहीं आती है? क्योंकि जो अन्दर की आवाज सुन रहा है तो बाहर आवाज क्यों करेगा?” (भूमिका, पृ. ६)
सच तो यह है कि सर्वोदयी देशना में अध्यात्म के साथ व्यवहार का भी समन्वय स्थापित किया गया है। आज अध्यात्म में सराबोर मनीषियों के खुदगर्ज पैमाने इतने विचित्र हो गये हैं कि स्वयं के जीवन में संयम का अभ्यास दूर, संयम धारण करने वाले योगियों के प्रति भी भक्तिभाव उनमें प्रकट नहीं होता है। ऐसे
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