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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
पश्चिम दिशा - पश्चिम का अर्थ है पश्चभाग अर्थात्पूर्व दिशा के पीछे का भाग पश्चिम कहलाता है। इसका स्वामी वरुण है। इसका स्वभाव चंचल है। तिलोयपण्णत्तिकार ने पश्चिम दिशा के विषय में कहा है - पाण्डुक वन के मध्य में चूलिका के पास पश्चिम दिशा में पूर्वोक्त भवन के सदृश व्यासादि सहित हारिद्र नामक प्रासाद है। उस प्रासाद में सदैव कुछ कम तीन पल्य प्रमाण आयु का धारक जलप्रभ नामक विमान का प्रभु वरुण नामक लोकपाल रहता है। जलप्रभ विमान के परिवार विमान ६लाख ६६ हजार ६६६ हैं।३०
वायव्य दिशा - पश्चिम और उत्तर दिशा के मध्यभाग वायव्य विदिशा कहलाती है। यह वायुकुमार देवों का निवास स्थल है जो उत्तरेन्द्र है। इसके ४६ लाख भवन हैं। वायुकुमार देवों की प्रकति वायकरण है।तथा प्राकतिकदष्टिकोण से देखा जाए तो उत्तरी पश्चिम हवाओं का प्रकोप सदैव बना रहता है जिससे वायु का दबाव इस दिशा में अधिक होता है।तिलोयपण्णत्तिकार ने वायव्य कोण में सामानिक देवों का निवास बताया है।
उत्तर दिशा - उत्तर दिशा सभी फलों को देने वाली सुखदायी दिशा है। इसका स्वामी कुबेर होता है।जो लोक व्यवहार में धन क देवता माना गया है।उत्तर दिशा में ही जैनमत के अनुसार विदेह क्षेत्र विद्यमान है। जहाँ सदैव तीर्थकर विद्यमान रहते हैं। तिलोयपण्णत्ति में उत्तर दिशा के विषय में वर्णन है कि- उस पाण्डुक वन के मध्य में चलिका के पास उत्तर विभाग में पूर्वोक्त भवन के सदश विस्तार वाला पाण्डुक नामक प्रासाद है।उस उत्तम प्रासाद में कुछ कम तीन पल्य प्रमाण आय का धारक एवं वल्गुप्रभ विमान का प्रभु कुबेर नामक देव रहता है।३३
ब्रह्म स्थान - सभी दिशाओं के मध्य बिन्दु को ब्रह्म स्थान कहते हैं। यह वास्तु पुरुषका मर्म स्थान भी कहलाता है। इस स्थान में किसी भी प्रकार का कार्य करना अशुभ माना गया है। तिलोयपण्णत्ति कार ने कहा है कि