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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
(क) इच्छा परिमाण - ___ महावीर के अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर आवश्यकताओं को मर्यादित कर दिया। सिद्धान्तानुसार समतावादी समाज रचना में यह आवश्यक हो गया कि आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संचय न करें। मनुष्य की इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं और लाभ के साथ ही लोभ के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है, क्योंकि चांदी-सोने के कैलाश पर्वत भी व्यक्ति को प्राप्त जाएं, तब भी उसकी इच्छा पूरी नहीं हो सकती। अतः इच्छा का नियमन आवश्यक है। इस दृष्टि से श्रावकों के लिए परिग्रह-परिमाण या इच्छा परिमाण व्रत की व्यवस्था की गयी है। अतः मर्यादा से व्यक्ति अनावश्यक संग्रह और शोषण की प्रवृत्ति से बचता है। सांसारिक पदार्थों का परिसीमन जीवन-निर्वाह को ध्यान में रखते हुए किया गया है, वे हैं- १. क्षेत्र (खेत आदि भूमि), २. हिरण्य (चाँदी), ३. वास्तु (निवास योग्य स्थान), ४. शयनासन, ५. धन (अन्य मूल्यवान पदार्थ) (ढले हुए या घी, गुड़ आदि), ६. धान्य (गेहूँ, चावल, तिल आदि), ७. द्विपद (दो पैर वाले), ८. चतुष्पद (चार पैर वाले), ९. कुप्य (वस्त्र, पात्र, औषधि आदि) १०. भाण्ड (पीतल, तांबा, कांसा, लोहा, कांच, प्लास्टिक आदि)। (ख) दिक्परिमाण व्रत - ___भगवान् महावीर का दूसरा सूत्र है-दिक्परिमाणव्रत। विभिन्न दिशाओं में आने-जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या निश्चय करना कि अमुक दिशा में इतनी दूरी से अधिक नहीं जाऊँगा।१२ इस प्रकार की मर्यादा से वृत्तियों के संकोच के साथ-साथ मन की चंचलता समाप्त होती है तथा अनावश्यक लाभ अथवा संग्रह के अवसरों पर स्वैच्छिक रोक लगती है। क्षेत्र सीमा का अतिक्रमण करना अन्तर्राष्ट्रीय कानून की दृष्टि में अपराध माना जाता है। अतः इस व्रत के पालन करने से दूसरे के अधिकार क्षेत्र में उपनिवेश बसा कर लाभ कमाने की या शोषण करने की वृत्ति से बचाव होता है। इस प्रकार के व्रतों से हम अपनी आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन कर समतावादी समाज-रचना में सहयोग कर सकते हैं। (ग) उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत -
दिक्परिमाणव्रत के द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर तथा वहां की वस्तुओं से निवृत्ति हो जाती है, किन्तु मर्यादित क्षेत्र के अन्दर और वहाँ की वस्तुओं के उपभोग (एक बार उपभोग), परिभोग (बार-बार उपभोग) में भी अनावश्यक लाभ और संग्रह की वृत्ति न हो, इसके लिए इस व्रत का विधान है। जैन आगम में वर्णित इस व्रत की मर्यादा का उद्देश्य यही है कि व्यक्ति का जीवन सादगीपूर्ण हो और वह स्वयं जीवित रहने के साथ-साथ दूसरों को भी जीवित रहने के अवसर और साधन प्रदान कर सकें। व्यर्थ के संग्रह और लोभ से निवृत्ति के लिए इन व्रतों का विशेष महत्व है। (घ) देशावकाशिक व्रत -
दिक्परिमाण एवं उपभोग-परिभोग परिमाण के साथ-साथ देशावकाशिक व्रत का भी विधान श्रावक के लिए किया गया है, जिसके अंतर्गत दिन-प्रतिदिन उपभोग-परिभोग एवं दिक्परिमाण व्रत का और भी अधिक परिसीमन करने का उल्लेख किया गया है अर्थात् एक दिन-रात के लिए