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________________ समाधितन्त्र में प्रतिपादित अन्तरात्मा तात्त्विक व्याख्या परक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत समाधितंत्र अनुशीलन की विवेचना में तत्विषयक अनेक प्राचीन आचार्य प्रणीत ग्रंथों के चिन्तन को भी उद्धृत किया गया है। इस ग्रंथ की यह भी एक विशेषता दृष्टिगत हुई कि जैन न्याय के प्रमुख सूत्रग्रंथ परीक्षामुखसूत्र के अनेक न्यायविषयक सूत्रों की आध्यात्मिक विवेचना पहली बार यहाँ देखने व पढ़ने को मिली है। जैनधर्मदर्शन में आत्मा के तीन भेद हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। यही बात समाधितन्त्र में प्रतिपादित है बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु। उपेयात्तत्र परमं मध्योपायद् बहिस्त्यजेत्।। ४।। अर्थात् सर्व प्राणियों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा, इस तरह तीन प्रकार का आत्मा है। आत्मा के इन तीन भेदों में से अन्तरात्मा के उपाय द्वारा परमात्मा को अंगीकार करें और बहिरात्मा को छोड़ें। यहाँ अन्तरात्मा का विषय विशेष केन्द्रित है। यद्यपि पूर्वोक्त श्लोक की काफी विस्तार से इस ग्रंथ में आ. श्री विशुद्धसागर जी द्वारा विवेचना प्रस्तुत की गई है। इसमें अन्तरात्मा के तीन भेद बतलाये हैं, जिन्हें आगे प्रस्तुत किया जायेगा। आगे के पद्य में त्रिविध आत्मा का स्वरूप है बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तरः। चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽतिनिर्मलः।।५।। अर्थात् शरीरादिक में आत्म भ्रान्ति को धरने वाला उन्हें भ्रम से आत्मा समझने वाला बहिरात्मा है। तथा चित्त के रागद्वेषादिक दोषों के और आत्मा के विषय में अभ्रान्त रखने वाला, उनका ठीक विवेक रखने वाला अर्थात् चित्त को चित्त रूप से, दोषों को दोष रूप से और आत्मा को आत्म रूप से अनुभव करने वाला अन्तरात्मा कहलाता है। तथा सर्वकर्ममल से रहित जो अत्यंत निर्मल है, वह परमात्मा है। त्रिविध आत्मा का स्वरूप प्रतिपादित करने वाले इस पंचम पद्य के अनुशीलन में विस्तार से सर्वप्रथम बहिरात्मा का स्वरूप प्रतिपादित किया। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा कि "अनादि से अज्ञ जीव ने मिथ्यात्व का कटुपान किया है। इतना अभ्यास हो गया विपरीतता का, कि उसे मिथ्यात्व का तिक्तपना ही नहीं लगता, उसी में आनंद मना रहा है। सत्य वस्तु स्वरूप को जानने का विचार भी नहीं करता। हेय-उपादेय दृष्टि से विहीन हो गया। तीव्र कषायी, दीर्घसंसारी, आरौिद्रध्यानी, देवानां प्रियों (मूखों) को भूतार्थ सत्यार्थ मार्ग दिखता ही नहीं है। अनुशीलनकार ने अन्तरात्मा की विवेचना करते हुए लिखा है- “अन्तरात्मा जीव शरीरादि बाह्य द्रव्यों से आत्मा को पूर्ण भिन्न ही स्वीकार करता है। चित्त में रागद्वेषादिक दोषों के और आत्मा के विषय में भ्रान्त रहने वाला बहिरात्मा में जो जो दोष थे, अन्तरात्मा के वे सभी दोष प्रलय को प्राप्त होते हैं। मिथ्या विषय कषाय को जो कालकूट विष के तुल्य समझता है। चारित्र मोहवश यदि कदाचित् संयम धारण नहीं भी कर पाता, फिर भी वह चारित्र के प्रति
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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