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________________ प्राकृत पूजा : एक अनुशीलन कहा है कि जो श्रावक निर्वाण को प्राप्त अरहंतादि की पूजा करते हैं वे महाकल्याण को प्राप्त करते हैं। दिव्वेण गंधेण दिव्वेण पुप्फेण दिव्वेण धूवेण दिव्वेण चुण्णेण दिव्वेण वासेण दिव्वेण व्हाणेण णिच्चकालं अच्चंति पूजंति, वंदंति णमस्संति-परि-णिव्वाण-महाकल्लाणपुज्जं अच्चमि पूजेमि वंदामि णमस्सामि दुक्खक्ख ओ कम्मक्खओ बोधिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं। (निर्वाण भक्ति) नंदीश्वर भक्ति में भी दिव्वेहि गंधेहि दिव्वेहि पुप्फेहि, दिया है (नंदीश्वर भक्ति) चैत्यभक्ति में दिव्वेवण गंधेण दिण्वेण पुप्फेण-आदि उक्त रूप में ही दिया है। आचार्य विद्यानंद के जिनपूजा माहात्म्य और जिनमंदिर विवेचन में अनेकानेक पूजा के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है - तीर्थकरों की पूजा, ध्यान या उपासना आदि से श्रावक शुभोपयोग से शुद्धोपयोग की ओर भी अग्रसर हो जाता है। उन्होंने अष्टद्रव्य पूजा को इस प्रकार दिया है - दिव्वेण व्हाणेण शुद्ध प्रासुक जलाभिषेक दिव्वेण गंधेण सुगंध चंदन दिव्वेण अक्खएण अंखंड अक्षत दिव्वेण पुप्फेण लवणादि पुष्प दिव्वेण चुण्णेण दिव्य चरु-चूर्णादि दिव्वेण दीवेण दीपक दिव्वेण धूवेण सुगंध युक्त धूप दिव्वेण वासेण मोक्ष फल अभिधान राजेन्द्र कोश के पूजा माहात्म्य में उक्त वर्णन है।(६/११०५) शांतिराज शास्त्री ने दिव्वेहि गंधेहि दिव्वेहि अक्खेहि दिव्वेहि पुष्फेहि दिव्वेहि दीनेहि दिव्वेहि धूवेहि, दिव्वेवहि चुण्णेहि दिव्वेहि वासेहि दिव्वेहिव्हाणेहि-को निर्वाण भक्ति के आधार पर विवेचित किया है। देवच्चणा विहाणं जं कधिदं देस-विरट्ठाणम्मि। होदि पदत्थं झाणं कधिदं तं वरजिणिंदेहिं।। (भावसंग्रह-देवसेन ६२६-६२७) जहाँ देव अर्चना का विधान है वहाँ कर्मों का क्षय अवश्य है। प्राकृत में पूजा पढ़ने की पंरपरा रही होगी, जो बाद में भी प्रचलित रही है। ऐसा इसलिए कि बीसवीं शताब्दी में आर्यिका विशुद्धमति माता जी ने प्राकृत में आचार्य शान्तिसागर पूजा, आचार्य अजितसागर
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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