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________________ जैन आगमों में विभिन्न मतवाद एवं उनकी उत्पत्ति के कारण का युग था। इस समय सहसा समकालीन और सुनिश्चित स्वतन्त्र सभ्यताओं के केन्द्रों पर धार्मिक आंदोलन शुरु हुए। जहां सब धर्मों के विचारों में पुनर्जागरण हो रहा था, इस युग में चीन में दार्शनिक, जैसे- फंग यू लॉन (Fung Yu Lan) कन्फ्यूशियस, लाओत्सो ने धार्मिक चेतना जागृत की। ग्रीस में सोफिस्ट तथा भारत में भी नए-नए बौद्धिक विचारों का उद्भव हो रहा था। मानव जाति के लिए वह समय नवज्योति का था। जब हम उस समय के इतिहास की भौतिक व्याख्या करते हैं तो वह समय सामाजिक प्राणी में परिवर्तन लाने का समय था। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जहां पर बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास हो रहा था, वहीं पर महत्त्वपूर्ण अर्थशास्त्रीय एवं राजनीतिक बदलाव भी भारत, चीन तथा संपूर्ण विश्व में हो रहे थे। जिन्होंने ऐसी मानव-चेतना का जागरण कर दिया, जो सामाजिक बदलाव का अनुभव कर रहे थे। भारतवर्ष में इस युग में नये धार्मिक आंदालनों के उत्थान और पुराने धर्मों में सुधारवादी परिवर्तन एवं स्वतंत्र विचारों का उद्भव हुआ। जैन ग्रंथों में अनेक नास्तिक दार्शनिक संप्रदायों का उल्लेख है। बौद्ध ग्रन्थ तरेसठ श्रमण संप्रदाय का उल्लेख करते हैं। इसी तरह श्वेताम्बर उपनिषद् में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद आदि मतवादों का उल्लेख है। इन संप्रदायों की संख्या के बारे में जो विवरण मिलते हैं, वे अतिरंजित प्रतीत होते हैं, क्योंकि उस युग में ऐसी प्रवृत्ति प्रचलित थी और ऐसा भी नहीं मानना चाहिए कि वे स्वतंत्र धार्मिक पंथ और संप्रदाय थे। इन मतवादों के सिद्धान्त और व्यवहार में बहुत साधारण अन्तर था। यह कहना तो गलत होगा कि इन सब मत-मतान्तरों की उत्पत्ति एक ही समय हुई। परन्तु इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि इनमें से कुछ की उत्पत्ति भगवान् महावीर से पूर्व हो चुकी थी। महावीर युगीन विभिन्न मतवादों को तपस्वियों के प्रबुद्ध आंदोलन की संज्ञा दी गई है। जो वस्तुतः सामान्य आन्दोलन नहीं थे, न ही इनकी उत्पत्ति बाह्ममणवादी सुधारों, न क्षत्रियों के विद्रोह से, न मध्यम वर्ग के प्रयत्नों का परिणाम थी, अपितु वह एक वर्गहीन, जातिहीन आंदोलन था। यद्यपि ये आंदोलन समाज के लोगों के बीच शुरू हुए तथापि इनका किसी वर्ग विशेष के हित दृष्टि से कोई संबन्ध नहीं था। हाँ यह अलग बात है कि इन मतवादों के प्रमुखों (प्रवर्तक) में कुछ के समाज सुधारवादी स्वर जरूर थे। इन बौद्धिक आन्दोलनों की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं - ___मैक्समुलर, जी. ब्यूलर, एच.कर्न, हर्मन जैकोबी का कहना है कि इस युग के बौद्ध, जैन तथा अन्य नास्तिक पंथों का आदर्श ब्राह्मणवादी सन्यासी थे। उनका मानना है कि वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध में ये शक्तिशाली हो रहे थे। रीज डेविड्स के मतानुसार इन धार्मिक परिव्राजक सन्यासियों का उत्थान बौद्धिक आन्दोलन के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के पूर्व हो चुका था। यह बहुत कुछ सामान्य (बौद्धिक) आन्दोलन था, किन्तु पुरोहित आन्दोलन नहीं था। इसमें कोई संशय नहीं है, जो ब्राह्मण धर्म के, जीवन के मूल गुण था, उसके ही नैतिक विचारों में विरोध होने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि त्रिवर्ग के अतिरिक्त मोक्ष भी होता है, उसकी धारणा को लोग मानने लगे। चार आश्रम सिद्धान्त वह उसी का परिणाम है। प्रवृत्ति
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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