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________________ जैनधर्म में शिक्षा व्यवस्था २३. गुरुभक्ति : सती मुक्त्यै, शूद्रं किं वा न साधयेत्। त्रिलोकी मूल्यरत्नेन, दुर्लभः किं तुषोत्करः।। क्षत्रचूडामणि २/३२ २४. वही २/३० २५. अशेष शास्वागमतत्त्वदर्शिनां- शान्तिनाथ चरित १/१२९ २६. निर्बन्धासंजातकषार्थ कार्यमचिन्तयित्वा गुरुणाऽहयुक्तः। वित्तस्य विद्यापरिसंख्यया मे कोटिश्चतसोदश चाहरेति।। रघुवंश-५/२१ २७. क्षत्रचूडामणि - २/३९ २८. शैक्षिक चिन्तन एवं प्रयोग पृष्ठ-१६६-१६७ २९. उत्तराध्ययन सूत्र ३०. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत- पृष्ठ-१६७ ३१. क्षत्रचूडामणि-२/१० ३२. विद्या नाम नरस्य रुपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं, विद्याभोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरुणां गुरु। विद्या बन्धुजना विदेश-गमने विद्या परम देवता, विद्या राजसु पुजिता नहि धनं विद्याविहीन पशुः।। नीतिशतक-२० ३३. क्षत्रचूडामणि-२/२५-२७ -प्रधानाचार्य नेहरू स्मारक इण्टर कालेज, साकीपुर, ग्रेटर नोयडा (उ. प्र.) लेखकों के लिए सूचना विद्वान लेखकों से निवेदन है कि वे अपने मौलिक एवं अप्रकाशित शोधालेख कम्प्यूटर टाइप में सी.डी के साथ प्रकाशनार्थ भेजें। हस्तलिखित आलेख सुस्पष्ट एवं सुन्दर लिपि में होना चाहिए। फोटोकापी वाले आलेख स्वीकार नहीं किये जायेंगे। आपके द्वारा भेजा गया शोधालेख यदि किसी अन्य पत्रिका में प्रकाशित हो जाये तो उसकी सूचना तत्काल अनेकान्त' वीर सेवा मंदिर, २१ दरियागंज नई दिल्ली को देने की कृपा करें। - संपादक
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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