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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 आचार्य भूतबलि ने षट्खण्डागम के बीसदिसूत्रों को प्राप्त करके आगम के संरक्षण की इस पुनीत प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए संपूर्ण षट्खडागम को लिपिबद्ध करके उसका लेखनकार्य ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को पूर्ण किया। यह जैन वाङ् मय के इतिहास की एक अतिमहत्त्वपूर्ण घटना थी, जब परंपरा से चले आ रहे मौखिक आगम को लिपिबद्ध करके चिरस्थायी बना दिया गया था। इस लेख कार्य के उपरांत आचार्य भूतबलि ने लिखित ग्रंथों की द्रव्यश्रुत के रूप में पूजा की। तब से जैन परंपरा में प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी तिथि को श्रुत पंचमी पर्व के रूप में मनाया जाता है।" इसके बाद भूतबलि ने षट्खण्डागम की पुस्तकों को आचार्य पुष्पदंत के पास भेजा जिसे देखकर पुष्पदंत अत्यन्त आह्लादित हुए और उन्होंने भी उस श्रुति-निधि की आराधना की। षट्खण्डागम के कर्ता : उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में स्पष्ट है कि षट्खण्डागम का तीर्थंकर महावीर स्वामी की देशना से साक्षात् सम्बन्ध है और वही उसके मूलकर्ता हैं । परन्तु द्रव्यश्रुत की रचना की अपेक्षा इसके उपदेशक आचार्य धरसेन और इसके रचनाकार आचार्यद्वय पुष्पदंत एवं भूतबलि सिद्ध होते हैं। 56 षट्खण्डागम का नामकरण और विषयवस्तु : वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में इस ग्रन्थराज को 'खण्डसिद्धान्त' कहा है और खण्डों की संख्या छह निर्दिष्ट की है। धवला में ही वीरसेनाचार्य ने सिद्धान्त और आगम को एकार्थवाची कहा है।" परन्तु इन्द्रनन्दि ने इसे श्रुतावतार में 'षट्खण्डागम' संज्ञा से अभिहित किया है। इस षट्खण्डागम नामक ग्रन्थराज में जैन दर्शन के 'कर्म सिद्धान्त' से सम्बद्ध विषय का वर्णन करने वाले जीवट्ठाण, खुद्दाबन्ध, बंधसामित्तविचय, वेयणा, वग्गणा एवं महाबंध नामक छह खण्ड है। इसमें छह खण्ड होने के कारण ही इसका नाम षट्खण्डागम पड़ा। षट्खण्डागम का एक अन्य नाम सत्कर्मप्राभूत' भी प्राप्त होता है। षट्खण्डागम की भाषा और परिमाण: षट्खण्डागम की रचना प्राकृत भाषा में की गयी है और इसके परिमाण पर प्रकाश डालते हुए इन्द्रनन्दि ने लिखा है कि "भूतबलि ने पाँच खण्डों के छह हजार सूत्रों को रचने के बाद महाबन्ध नामक छठवें खण्ड की तीस हजार श्लोक प्रमाण रचना की । १६ इस तथ्य से स्पष्ट है कि षट्खण्डागम अत्यन्त विशाल परिमाण वाला ग्रंथ है। अतः इसे ग्रन्थराज की संज्ञा देना उचित ही है। षट्खण्डागम की विषयवस्तु का मूलस्रोत : जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है कि इस ग्रंथ की विषयवस्तु का मूलस्रोत द्वादशांग आगम है और आगम की दीर्घकालीन मौखिक परम्परा में उसका बहुभाग नष्ट हो चुका था केवल बारहवें दृष्टिवाद अंग का कुछ अंश ही अवशिष्ट था। दृष्टिवाद अंग के परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका नामक पांच भेद हैं।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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