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________________ जैन-आगम के परिप्रेक्ष्य में : षट्खण्डागम का वैशिष्ट्य - पंकज कुमार जैन जैनदर्शन में पूर्वापर विरोधादि दोषों से रहित शुद्ध आप्त के वचन को आगम माना गया है। साथ ही जैनदर्शन में आगम को प्रमाण की कोटि में भी रखा गया है। जैनदर्शन में ऐसे परमात्मा को आप्त कहा गया है जो क्षुधा, तृषा, जन्म और जरा आदि अट्ठारह दोषों से रहित होते हैं एवं राग-द्वेषादि से रहित होकर परम वीतराग-अवस्था को उपलब्ध होते हैं। वे अपनी आत्मा पर आवृत ज्ञानावरण कर्म का पूर्णरूपेण क्षय करके केवलज्ञान या सर्वज्ञता को प्राप्त कर लेते हैं। आप्त के केवलज्ञान की यह विशेषता रहती है कि वह जगत् के समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों को युगपत् जानते हैं एवं ऐसे आप्त को अरिहन्त, सर्वज्ञ या जिन भी कहते हैं। सर्वज्ञता को प्राप्त आप्त के द्वारा जो उपदेश दिया जाता है, उसे आगम कहा जाता है। इस युग के जैन-तीर्थकरों की परम्परा में अन्तिम और चौबीसवें तीर्थकर महावीर स्वामी ने अपनी देशना में जो तत्त्वोपदेश प्रदान किया उसे उनके गणधर (प्रमुख शिष्य) गौतम स्वामी ने बारह अंगों के रूप में जनसमूह के मध्य उपदेशित किया और यह उपदेश ही जैन-परम्परा में द्वादशांग जिनवाणी के रूप में समादरित है। भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद उनके द्वारा उपदेशित द्वादशांग आगम परम्परा से मौखिक रूप में लगभग ६८३ वर्षों तक प्रवाहित होता रहा। परन्तु इस दीर्घ कालान्तराल में जिनागम का अधिकांश भाग विस्मृति के गर्त में लुप्त हो गया। अंत में अवशिष्ट ज्ञान के सम्बन्ध में जैन धर्म के दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदायों में भिन्न-भिन्न मान्यता है। जहाँ श्वेताम्बर जैन परंपरा की मान्यता है कि द्वादशांग आगम में एकादश आगम सुरक्षित हैं और केवल बारहवें दृष्टिवाद अंग का ही विच्छेद हुआ है वहीं दूसरी ओर दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि द्वादशांग आगम में एकादशांग आगम पूर्णरूपेण लुप्त हो चुका है और केवल बारहवें दृष्टिवाद अंग का कुछ ही अंश अवशिष्ट है। भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद जैनाचार्यों की परंपरा और उनके कालक्रम के निध परिण में सहायक एक महत्त्वपूर्ण प्राकृत पट्टावली के अनुसार वीर निर्वाण संवत् ५६५ तक लोहाचार्य की परम्परा रही है। इसके बाद क्रमशः जैन-परंपरा के महान् आचार्यों के रूप में अर्हद्बलि, माघनन्दि, धरसेन पुष्पदंत एवं भूतबलि का नामोल्लेख है और इनका आचार्यकाल क्रमशः २८ वर्ष, २१ वर्ष, १९ वर्ष, ३० वर्ष और २० वर्ष दिया है। इन पाँच आचार्यों के पास द्वादशांग आगम में से केवल एकांग का ज्ञान ही अवशिष्ट था।' उपर्युक्त प्राकृत पट्टावली के आधार पर आचार्य धरसेन का समय वीर निर्वाण संवत्
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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