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________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 __मोक्ष के साथ योजित करने के कारण समस्त आचार 'योग' कहलाता है। उस योग के पांच प्रकार हैं - स्थान (आसन), वर्ण, अर्थज्ञान, आलम्बन तथा एकाग्रता। जैन परम्परा में योग को मोक्षप्राप्ति का उपाय बताया गया। पातञ्जल योगदर्शन सांख्यदर्शन की साधना पद्धति का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसमें योग का सुव्यवस्थित रूप से प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ संक्षिप्त है, विषय की पूर्ण स्पष्टता और अनुभव के प्राधन्य को समाहित किये हुए है। जैन परम्परा में योग का आधार है- गुप्ति जिसको परिभाषित करते हुए आचार्य उमास्वामी ने लिखा है “सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति' अर्थात् योगों का निग्रह करना गुप्ति है। जैन साधना का सूत्र होगा 'मनोवाक्कामगुप्तिर्योगः'। कोई कहता है कि ध्यान तो मानसिक परिणाम है। (ध्यान मानसिक ही होता है) यह यथार्थ नहीं है क्योंकि मन, वचन और शरीर - तीनों योगों से ध्यान होता है। ऐसा अर्हत् द्वारा निरूपित है। आचार्य हरिभद्र के योग विषयक ग्रन्थ जैनदर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि बहुत उदार एवं समन्वयात्मक रही है। उन्होंने उभयपरम्पराओं (जैन एवं सांख्ययोग दोनों में) सामञ्जस्य कीएक विशेष चिन्तनदृष्टि प्रदान की है जो योगभिलाषियों के लिए पथप्रदर्शक बन सकती है। __ आचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित योग-स्वरूप तथा पातञ्जल योग में निर्दिष्ट योग स्वरूप में भिन्नता व एकरूपता दोनों ही निहित है। जब हम चित्तवृत्ति निरोध तथा मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दोनों अर्थों का स्थूल रूप से चिन्तन करते हैं तो दोनों अर्थों में भिन्नता परिलक्षित होती है किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से अध्ययन करने पर एकरूपता भी प्राप्त होती है। चित्तवृत्ति का निरोध करना एक क्रिया है, साधना है। इसका तात्पर्य है चित्त की वृत्तियों को रोकना किन्तु यह एकान्ततः निषेधपरक भाव को ही अभिव्यक्त नहीं करती, बल्कि विधेयात्मक अर्थ को भी अभिव्यक्त करता है। रोकने के साथ करने का भी सम्बन्ध है। इसलिए पतञ्जलि द्वारा योगस्वरूप का वास्तविक अर्थ यही है कि साधक अपनी संसाराभिमुख चित्तवृत्तियों को रोककर अपनी साधना को मोक्ष अर्थात् साध्यसिद्धि के अनुकूल बनायें। स्वमनोवृत्तियों को सांसारिक प्रपञ्च तथा विषम वासनाओं से विमुख कर मोक्षाभिमुखी बनाये दूसरी ओर आचार्य हरिभद्र द्वारा निर्दिष्ट 'योग' अर्थात् मोक्षप्रापक धर्मव्यापार का भी यही अर्थ ध्वनित होता है। इसके अनुसार मोक्ष के साथ सम्बन्ध करने वाली साधना या क्रिया ही योग जैनदर्शन में आध्यात्मिक साधना के परिप्रेक्ष्य में 'संवर' शब्द का प्रयोग हुआ है। संवर आस्रव के निरोध को कहा है। इस तरह संवर और योग दोनों के अर्थ में 'निरोध' शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु दोनों स्थान पर विशेषण अलग हैं - एक में चित्तवृत्ति है तो दूसरे में आस्रव। आगमों में आस्रव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को कहा है। यहां आस्रव में प्रयुक्त ‘योग’ योगदर्शन में प्रयुक्त 'चित्तवृत्ति' के स्थान पर है। इस प्रकार पतञ्जलि ने जिसे चित्तवृत्ति कहा है, जैनदर्शन में उसे आस्रव रूप योग कहा है। __ आस्रव योग के दो भेद हैं - सकषाय और अकषाय। ऐसे ही दो भेद चित्तवृत्ति के भी हैं - क्लिष्ट और अक्लिष्ट। जैनदर्शन कषाय के चार भेद मानता है - क्रोध, मान, माया, लोभ तथा पतञ्जलि भी क्लिष्ट चित्तवृत्ति के चार भेद - अविद्या, राग, द्वेष और अभिनिवेश बताते
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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